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इलेक्टोरल बांड: इतना सन्नाटा क्यों है?

आर्टिकल/इंटरव्यूइलेक्टोरल बांड: इतना सन्नाटा क्यों है?

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अमित बिश्नोई
देश की सर्वोच्च अदालत ने चुनावी चंदे पर एक फैसला सुनाया। संवैधानिक पीठ के इस फैसले के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी में ऐसी खामोशी छा गयी कि सुई भी गिरे तो उसकी आवाज़ पता चल जाय, सुप्रिया श्रीनेत की ज़बान में सुई पटक सन्नाटा. भाजपा कहिये या फिर मोदी सरकार, उनकी खामोशी जायज़ भी थी, ख़ामोशी की वजह भी थी, उनकी रणनीति का हिस्सा भी थी. भाजपा खामोश रही क्योंकि जिस इलेक्टोरल बांड योजना को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया उसकी सबसे बड़ी लाभ लेने वाली पार्टी वही थी. उसके लिए तो ये फैसला एक न संभलने वाला झटका था. ये फैसला तो उन सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए एक ऐसा अवसर था जैसे चिरागे जिन्न हाथ लगना। एक ऐसी पार्टी और एक ऐसे व्यक्ति को घेरने का अवसर जिसे पाने के लिए महागठबंधन तक बनाना पड़ा. लेकिन हुआ क्या, कुछ भी नहीं। 15 फरवरी को जब ये फैसला आया तो लगा देश की राजनीती में एक भूचाल आने वाला है, कांग्रेस पार्टी की तरफ कुछ हलचल हुई लेकिन बाकी पार्टियों का क्या, उनकी ख़ामोशी तो बहुत बड़ा सवाल बन गयी.

देश की एक पार्टी ने जिसने सत्ता का पूरा इस्तेमाल करते हुए चुनावी चंदे की परिभाषा ही बदल दी. सबकुछ परदे के पीछे कर दिया, सामने वाले को कुछ भी पता नहीं, वोटर को कोई भी जानकारी नहीं, सिर्फ देने वाला जानता है और लेने वाला और तीसरा वो जो दोनों के बीच लेनदेन करता है यानि वो बैंक जिसमें जाकर आप ख़ामोशी से इलेक्टोरल बांड खरीद सकते हो. कोई सवाल जवाब नहीं। चुनावी चंदे की एक नयी परंपरा शुरू हुई. एकतरफा चुनावी चंदा, जिसका 95 प्रतिशत हिस्सा एक पार्टी के पास और शेष में देश की सारी पार्टियां। राहुल गाँधी की भाषा में बोलें तो एक को छोड़ बाकि सभी पार्टियों के साथ घोर अन्याय है. अब जब राजनीतिक पार्टियों के साथ 2018 से इतना बड़ा अन्याय हो रहा था तो इतने बड़े फैसले के बाद विपक्ष खामोश क्यों है?

देखा जाय तो इलेक्टोरल बांड आने के बाद सबसे ज़्यादा प्रभाव दो पार्टियों पर ही पड़ा. सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी कांग्रेस। बस फर्क इतना है कि एक पार्टी मालामाल हो गयी तो दूसरी कंगाल। नौबत यहाँ तक आ गयी कि कांग्रेस पार्टी को अपने पुराने दौर में लौटना पड़ा और आम जनता से सीधे चुनावी चंदा लेने की कोशिश होने लगी. अब देखा जाय तो सुप्रीम कोर्ट के इलेक्टोरल बांड पर आये फैसले पर कांग्रेस पार्टी को तो बुरी तरह आक्रामक हो जाना चाहिए लेकिन बात सिर्फ कुछ बयानों और एक प्रेस कांफ्रेंस तक ही सीमित रह गयी. भारत जोड़ो न्याय यात्रा में राहुल गाँधी लगातार अन्याय की बात कर रहे हैं, वो बार बार लोगों को बता रहे हैं कि उनकी यात्रा का मकसद लोगों को न्याय दिलाना है यही वजह है जो भारत जोड़ो यात्रा में न्याय शब्द को जोड़ा गया. अब जब सुप्रीम कोर्ट से एक तरह उन्हें यानि कांग्रेस पार्टी को न्याय मिला है तो फिर उसका ज़िक्र उनके भाषणों में क्यों नहीं?

आज तो राहुल गाँधी मोदी जी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में थे लेकिन यहाँ भी उनके भाषण में इलेक्टोरल बांड नदारद। क्यों वो इस मुद्दे को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने से पीछे हट रहे हैं, ऐसी क्या मजबूरी है. कांग्रेस के लिए तो ये एक सुनहरा अवसर था जिसे उसे दोनों हाथों से पकड़ना चाहिए था, राहुल गाँधी इस अवसर को क्यों गँवा रहे हैं, कांग्रेस पार्टी का कोई और नेता इसपर कुछ बोल क्यों नहीं रहा है. कांग्रेस पार्टी तो लगातार पैसे की कमी का रोना रोती आ रही है, बार बार इस बात को बताने से नहीं चूकती कि देश के सारे बड़े उद्योगपति इलेक्टोरल बांड के ज़रिये भाजपा की मदद कर रहे हैं और बदले में केंद्र की भाजपा सरकार से फायदा उठा रहे हैं. राहुल गाँधी लगातार अडानी-अम्बानी का नाम लेकर भाजपा से सांठगांठ का आरोप लगाते आ रहे हैं तो फिर अब वो खामोश हैं। क्यों? दूसरी पार्टियों की तो मजबूरियां समझ में आती हैं, समझ में आता है कि बहन मायावती ने इस मुद्दे पर एक ट्वीट करना भी गंवारा क्यों नहीं समझा। अखिलेश यादव और उनकी पार्टी के एक्स हैंडल पर एक ट्वीट ज़रूर दिखा और इतने से ही उन्होंने अपना फ़र्ज़ पूरा कर लिया। हर तरफ इस मुद्दे पर एक हैरानी भरी ख़ामोशी है और ये खामोशी बहुत से सवाल खड़े कर रही है, सत्तारूढ़ पार्टी पर नहीं विपक्षी गठबंधन पर, कांग्रेस पर.

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