अमित बिश्नोई
नितीश कुमार का 9वीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद जो पहला बयान दिया उसमें उन्होंने कहा हम पहले भी एनडीए में थे, अब फिर वापस आ गए हैं। मतलब नितीश कुमार ने कभी एनडीए छोड़ा ही नहीं था. नितीश की इस बात में सौ फ़ीसदी सच्चाई है. नितीश वाकई कभी एनडीए या कहिये भाजपा से दूर गए ही नहीं। कथित तौर पर उन्होंने एनडीए से कुछ समय के लिए विराम ज़रूर लिया था, किसी नई चीज़ की खोज में, किसी बड़े अवसर की तलाश में. इंसान की इच्छाओं का कोई अंत नहीं होता। लाख वो कहे कि मुझे ये चीज़ बिलकुल नहीं चाहिए लेकिन हकीकत में उसको उसी की तलाश होती है और फिर बात जब राजनीति की हो तो नेता जो बोलता है वो होता नहीं और जो नहीं बोलता वो होता है.
बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान नितीश और तेजस्वी आमने सामने थे. एक खांटी नेता का मुकाबला एक युवा और उभरते हुए नेता से था, बिहार की जनता में बदलाव दिख रहा था, नतीजों में भी वो बदलाव नज़र आया लेकिन जाम तेजस्वी के होंठो तक आने से पहले छलक गया या फिर किसी ने छलका दिया। कई सीटों पर निर्णय अनिर्णय की स्थिति में रहा और फिर स्थिति को देखकर ही अधिकारीयों ने निर्णय घोषित किया और नितीश कुमार भाजपा के साथ सातवीं बार मुख्यमंत्री बन बैठे। चुनाव प्रचार के दौरान नितीश कुमार बड़े स्पष्ट रूप से कहते थे कि ये उनका अंतिम चुनाव है. हो सकता है नितीश कुमार अगला चुनाव न लड़ें. लड़ेंगे या नहीं ये तो उनका फैसला है लेकिन अपने फैसले पर पलटी मारना तो उनकी आदतों में शुमार है इसलिए चुनाव न लड़ने वाली बात को सीरियस नहीं लेना चाहिए।
नितीश कुमार मार्च 2000 में पहली बार मुख्यमंत्री बने और अगले 24 सालों में 9 वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. इससे आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि नितीश कुमार को पांच साल की अवधि में कई बार शपथ लेने की आदत है, जैसे इस बार अभी तक तीसरी बार शपथ ले चुके हैं, अभी पता नहीं आगे चलकर क्या होगा। हो सकता है एक और तलाक़, एक और निकाह। लेकिन बन्दे में दम है, सीटें कम हो या ज़्यादा मुख्यमंत्री तो वही बनेगा। मज़ेदार बात तो ये कि दिग्गज पार्टियां हमेशा तैयार बैठी रहती हैं कि आइये और मुख्यमंत्री की सीट पर विराजिए, हम आपके पीछे खड़े रहेंगे। ये बात तब और भी अजीब लगती है जब बार बार ऐसा होता है और बिहार में सीएम पद के लिए कोई और नहीं होता। ऐसा लगता है कि पार्टी कोई भी जीते मुख्यमंत्री पद का पेटेंट नितीश कुमार के नाम हैं।
नितीश कुमार के पास सहयोगियों को छोड़ने की हमेशा कोई न कोई वजह रहती है, कभी भाजपा उनकी पार्टी तोड़ने लगती है तो कभी राजद की वजह से उनकी सरकार की बदनामी होती है, इसबार की वजह महागठबंधन है , कहा जा रहा है कि उनका सम्मान नहीं किया गया. दरअसल सारी कहानी यहीं से शुरू हुई। नितीश ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने के कुछ समय बाद जिस तरह राष्ट्रीय राजनीती में दिलचस्पी लेनी शुरू की उससे कहा जाने लगा कि नितीश कुमार तेजस्वी को बिहार सौंपकर केंद्र की राजनीती में उतरने जा रहे हैं. राजनीती का छोटे से छोटा जानकार भी जनता है कि राज्य की राजनीति छोड़कर राष्ट्रीय राजनीती में कोई क्यों जाना चाहता है, यकीनन उसकी निगाह सर्वोच्च पद पर ही होती है , निगाह में पीएम की कुर्सी ही होती है। नितीश ज़बान से चाहे कुछ भी कहें मगर हकीकत यही है कि इस फ़साने में सारा खेल पीएम की कुर्सी का था जिसपर फिलहाल मोदी जी का पेटेंट है.
नितीश ने इसी इरादे से विपक्ष को एक जुट करने के लिए दिन रात एक कर दिया , उनका एक पैर पटना में होता था तो अगला पैर कभी दिल्ली, कभी कोलकाता, कभी तमिलनाडु तो कभी लखनऊ में होता था. सबकुछ योजना के मुताबिक चल रहा था, कोई जब भी पीएम पद की दावेदारी पर सवाल पूछता तो अंदाज़ बड़ा मासूमियत वाला होता। हम तो देश को भाजपा से बचाने के लिए विपक्ष को एकजुट करने के लिए आये हैं ये अलग बात है कि आज उसी भाजपा के साथ 9वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है. ऐसा लगा ही नहीं कि ये बंदा अभी एक हफ्ता पहले इंडिया अलायन्स की बैठक का हिस्सा था और जिसे महागठबंधन का संयोजक बनने का ऑफर दिया गया था. एक हफ्ते में इस बन्दे ने फटाफट तलाक़, चटपट मंगनी और झटपट शादी भी कर डाली। प्रशांत किशोर ने सही कहा कि देश कि राजनीति के पल्टीमारों के बादशाह हैं नितीश कुमार। आपकी क्या राय है?