देहरादून। उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की एक और योजना पर सरकारी उदासीनता के चलते संकट के बादल मंडराते हुए दिखाई दे रहे है। सूबे की सबसे गंभीर समस्या पलायन की रोकथाम को लेकर शुरू की गई मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना के ताजे आँकड़े इसी ओर इशारा कर रहे है। जिसमे उत्तराखंड में लगातार नेतृत्व परिवर्तन और कोविड का असर इसकी वजह बताई जा रही है। 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में बने पलायन आयोग और उसकी सिफारिशों के अनुरूप तैयार की गई मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना की 353 योजनाओ में से महज 185 योजनाए पूरी होना और 52 फीसदी बजट का इस्तेमाल न सरकारी मशीनरी के उदासीन रवैये को उजागर करता है।
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हाल ही में हुई योजना की समीक्षा बैठक में सामने आए आंकड़ों से यही जाहिर होता है राज्य सरकार ने वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए सभी 13 जिलों को 17 करोड़ 87 लाख ₹27000 का बजट उपलब्ध कराया था इस धनराशि में सरकार 353 योजनाओं को मंजूरी दे चुकी थी। लेकिन हालिया समीक्षा बैठक में यह सामने आया है कि केवल 185 योजनाएं ही पूरी हो पाई है यही नहीं चौंकाने वाली बात यह है कि केवल 48% बजट ही इस्तेमाल हो पाया है। जबकि 2020-21 में इस योजना में 17.92 करोड़ के बजट में 361 योजनाओ में से 317 योजनाओ पूरी हुई थी। जबकि कुल बजट का 84 प्रतिशत बजट इस्तेमाल किया गया था।
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दरअसल 2017 में त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार में पलायन के रोकथाम के लिए पलायन आयोग का गठन किया गया। आयोग की ही सिफारिशों के अनुसार पलायन प्रभावित गांव में बुनियादी सुविधाएं बढ़ाने के लिए और आजीविका के अवसर तलाशने के लिए मुख्यमंत्री पलायन रोकथाम योजना शुरू की गई थी। जिसमें अलग से बजट का भी प्रावधान किया गया था। मगर समीक्षा बैठक के आंकड़ों ने इस योजना को लेकर सब की चिंताएं बढ़ा दी हैं। जानकार भी मानते है पलायन को लेकर सरकारी तंत्र की उदासीनता है। जिले वाइज इस योजना के हाल को जाने तो अल्मोड़ा, नैनीताल और उत्तकाशी में इस योजना की रफ़्तार बहुत धीमी है। अल्मोड़ा में 66 में से 26 योजना पूरी हुई जबकि नैनीताल में में तीन और उत्तरकाशी में केवल 14 योजना पूरी हुई।