देहरादून। उत्तराखंड की संस्कृति और इसके त्योहारों का प्रकृति के साथ बहुत ही खास रिश्ता है। त्योहारों के ऐसे ही रिश्ते की डोर से पहाड़ का जनमानस जुड़ा है। इनमें से एक त्योहार है हरेला पर्व। जो कि हरियाली का प्रतीक माना जाता है। हरेला लोकपर्व न सिर्फ पर्व है बल्कि एक अभियान है। जिससे जुड़कर प्रदेशवासी बरसों से संस्कृति और पर्यावरण दोनों को संरक्षित करते रहे हैं। यह हरेला पर्व पूरे प्रदेश में धूमधाम से मनाया जाता है।
हरेला पर्व साल में तीन बार उत्तराखंड में मनाया जाता है। पहला चैत्र माह में, दूसरा सावन के महीने में और तीसरा अश्विन माह में। हरेला का मतलब हरियाली से है। उत्तराखंड में जब सावन शुरू होता है तब चारों तरफ हरियाली चादर ओढे प्राकृति नजर आने लगती है। उसी समय हरेला पर्व मुख्य रूप से धूमधाम से मनाया जाता है। यह त्योहार खुशहाली और समृद्धि का भी प्रतीक है। जिसे उत्तराखंड के कुमाऊं इलाके में धूमधाम के साथ मनाया जाता है। हरेला लोकपर्व की शुरूआत जुलाई के पहले सप्ताह से ही हो जाती है।
यह त्योहार जुलाई के महीने में मनाया जाता है। जिससे नौ दिन पहले से मक्का, गेहूं, सरसों,उड़द और भट जैसे सात तरह के बीज बोते हैं। इसमें पानी दिया जाता है। कुछ दिनों में इसमें अंकुरित होकर पौधे निकल आते हैं। इनको ही हरेला कहा जाता है। इन पौधों को देवताओं को पूजा के रूप में अर्पित किया जाता है। घर के बुजुर्ग इसे ही काटते हैं और छोटे लोगों के कान और सिर पर इनके तिनकों को रख अपना आशीर्वाद देते हैं। उत्तराखंड संस्कृति से युवाओं जोड़ने के लिए हरेला पर्व मनाया जाता है। परिवार का बेटा या बेटी घर से बाहर हैं तो कुछ लोग उनके पास हरेला डाक के माध्यम से भेजते हैं। उत्तराखंड की संस्कृति में युवाओं और बुजुर्गों को एक साथ जोड़ने वाला हरेला संस्कृति के साथ ही पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभाता है। पर्यावरण संरक्षण के लिए भी यह संदेश देने वाला पर्व है। इस दिन पौधरोपण करने और पेड़-पौधों को सुरक्षित बड़ा करने के लिए लोगों को प्रेरित किया जाता है।