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नेतृत्व के संकट से जूझती कांग्रेस

आर्टिकल/इंटरव्यूनेतृत्व के संकट से जूझती कांग्रेस

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नेतृत्व के संकट से जूझती कांग्रेस

ज़ीनत सिद्दीक़ी

नेतृत्व के संकट से जूझती कांग्रेस

भारत में सबसे पुराना राष्ट्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस है। इस पार्टी ने देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस की सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू इस संघर्ष के परिणामस्वरूप देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में चुने गए थे। कांग्रेस ने हमेशा एक से बढ़कर एक नेता देश को दिए हैं, भारत में आज जो विकास की संरचना नज़र आ रही है वह भी कांग्रेस की नीतियों के कारण ही है जबकि वर्तमान सत्तारूढ़ दल भाजपा के पास अभी तक देश के विकास के लिए अपनी कोई योजना नहीं है। मगर इसके बावजूद भाजपा अपने करिश्माई नेतृत्व के दम पर सत्ता में बरक़रार है वहीँ कांग्रेस पार्टी नेतृत्व के संकट से जूझ रही है। हालत यह है कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के पास इस वक़्त कोई ऐसा करिश्माई नेता नहीं है जो देश की राजनीति में क्रांति ला सके। इसका नुकसान यह हो रहा है कि पार्टी के भीतर आये दिन विद्रोह के सुर उभरने लगे हैं और इसकी असली वजह यह है कि कांग्रेस जमीनी स्तर पर धीरे धीरे अपना वजूद खोती जा रही है.

कांग्रेस की वर्तमान बिगड़ती स्थिति के लिए किसी एक को दोष नहीं दिया जा सकता। इस संकट का एक लम्बा राजनीतिक परिदृश्य है जिसपर नज़र डाले बिना इस समस्या से निजात हासिल नहीं किया जा सकता । समस्या यह कि आज भी कांग्रेसी नेता पार्टी को इस स्थिति तक पहुँचाने के लिए खुद जवाबदेह होने के बजाय एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। चाहे गुलाम नबी आजाद हों, कपिल सिब्बल हों या जी 23 के दूसरे नेता , हर कोई कांग्रेस के पतन के लिए वर्तमान नेतृत्व को जिम्मेदार ठहरा रहा है, वह अपने गिरेबां में झांककर नहीं देख रहे हैं.

बात थोड़ी कड़वी है मगर सच है कि नेतृत्व के इस संकट के लिए इंदिरा गांधी ज़िम्मेदार हैं, इंदिरा गांधी उस बरगद के पेड़ की तरह थीं जिसकी छाया में कोई पेड़ नहीं उग सकता था। यहाँ तक कि संजय गाँधी की मौत को भी लोग शक की नज़र से देखते हैं. उनके बाद राजीव गांधी ने राजनीति के क्षेत्र में क़दम रखा या क़दम रखने को मजबूर हुए तो उनके पास कोई राजनीतिक अनुभव नहीं था, विजन ज़रूर था तभी देश में कम्प्यूटर क्रांति आयी लेकिन कांग्रेस के खुर्राट नेताओं ने उनको हमेशा ग़लत राह दिखाने की कोशिश की यही वजह है कि राजीव गांधी के समय में ही भाजपा और आरएसएस ने लोगों के बीच अपनी पैठ बनाई और अपने एजेंडे को लागू करने का हर संभव प्रयास किया।

जैसे जैसे समय आगे बढ़ा, कांग्रेस ज़मीनी सतह पर कमज़ोर होती गयी और आरएसएस कि छत्रछाया में भाजपा की जड़ें मज़बूत होती गयी. इस बीच भले ही मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दस बरस कांग्रेस की सरकार रही मगर जहाँ तक संगठन का सवाल है वह कमज़ोर ही होता गया. गाँव -कस्बों के ज़मीनी कार्यकर्ताओं से सफ़ेदपोश खद्दरधारी और AC कमरों में रहने वाले और कारों में चलने वाले नेता दूर होते चले गए. धीरे धीरे कांग्रेस के उस काडर पर क्षेत्रीय दलों ने कब्ज़ा कर लिया।

आज हालत यह है कि सिर्फ राहुल और प्रियंका ही कांग्रेस की गाड़ी को आगे ढकेलने में लगे हैं इस गाड़ी को धक्का देने में कोई भी मज़बूत हाथ कांग्रेस के पास नहीं है , हाँ! रणनीतिकार ज़रूर हैं जो कांग्रेस की क़ब्र खोदने में हमेशा लगे रहते हैं. भाई-बहन की यह जोड़ी भले ही कितना ज़ोर लगा ले मगर बिना ज़मीनी काडर के राजनीतिक सफलता मिलना नामुमकिन होता है.

यूपी के चुनाव सिर पर खड़े हैं और सभी पार्टियों में सबसे ज़्यादा कंफ्यूज पार्टी कांग्रेस ही लग रही है. भले ही योगी सरकार के खिलाफ अजय सिंह लल्लू के नेतृत्व में कांग्रेस लगातार संघर्ष कर रही है और तमाम मुद्दों पर सरकार को घेर रही है मगर जहाँ तक शीर्ष नेतृत्व की बात है वह अभी भी सोशल मीडिया तक ही सीमित है. यूपी की राजनीति में विकास कभी मुद्दा नहीं बना और न ही आगे बनने की उम्मीद है, यहाँ पर पहले भी जाति और सम्प्रदायों को साधने की राजनीति होती रही है और आगे भी होती रहेगी। अगर विकास पर ही वोट पड़ते तो अखिलेश का काम बोल रहा होता और आज वो ही मुख्यमंत्री होते।

यूपी में 32 सालों से कांग्रेस सत्ता से दूर है और अब हाशिये पर पहुँच चुकी है. इन 32 सालों में कांग्रेस का दलित वोट बैंक बसपा में जा चूका है, मुसलमानों को सपा समर्थक बताया जाता है और ब्राह्मणों पर भाजपा ने कब्ज़ा कर लिया है. अब वोटबैंक विहीन कांग्रेस यूपी में अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है. हालत यह है कि वह कभी मुसलमानों की ओर देख रही है तो कभी इन दिनों भाजपा से नाराज़ ब्राह्मणों और किसानों से आस लगाए बैठी है, मगर फैसला कुछ नहीं कर पा रही है. सपा, बसपा, भाजपा में सीएम कैंडिडेट कौन होगा सभी को मालूम है मगर कांग्रेस के बारे में किसी को पता नहीं। कुछ दिन पहले प्रदेश कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने फेसबुक पर जानकारी दी थी कि प्रियंका गाँधी वाड्रा यूपी में कांग्रेस की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार होंगी, पार्टी में आम सहमति बन चुकी है बस एक दो दिन में घोषणा हो जाएगी। उन एक दो दिनों को भी 15-20 दिन हो चुके हैं.

सवाल वही है कि गाँधी परिवार हमेशा इस चक्कर में क्यों रहता है कि जब थाली सजी हुई होगी तभी ताजपोशी होगी, यूपीए-2 के दौरान भी यही हुआ था जब मनमोहन सिंह राहुल गाँधी के लिए रास्ते से हट रहे थे तब भी अम्मा सोनिया को लगा था कि गठबंधन सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी राहुल नहीं उठा सकते, वह पूर्ण बहुमत चाह रही थीं ताकि लल्ला किसी दूसरी पार्टी के दबाव में न रहें। कांग्रेस को इस सोच से निकलना ही होगा। अब गठबंधन का दौर है चाहे चुनाव से पहले हो या चुनाव के बाद. ऐसे में प्रियंका गाँधी को सीएम कैंडिडेट घोषित करने में सोनिया गाँधी को हिचक क्यों? यूपी की ज़िम्मेदारी वैसे भी प्रियंका गाँधी ही संभाल रही है, ऐसे में प्रियंका को अगर सीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया जाता है तो हो सकता है खिसका हुआ ब्राह्मण वोट बैंक घर वापसी को सोचे, ब्राह्मणों की वापसी देख हो सकता है मुस्लिम वोट बैंक भी पुनर्विचार करे. रणनीति और नेतृत्व के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी के लिए पारदर्शिता लाना बेहद ज़रूरी है. यह बात सभी जानते हैं कि यूपी में कांग्रेस पार्टी सरकार बनाने की पोजीशन में तो नहीं आ सकती लेकिन अगर प्रियंका की उम्मीदवारी के साथ चुनाव मैदान में जाया जाय तो सरकार बनवाने की पोजीशन में आने की सम्भावना बन सकती है और यह बात कांग्रेस पार्टी के लिए संजीवनी से कम नहीं होगी।

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