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मोदी सरकार में कारपोरेट की नाराजगी झेलने का साहस नहीं

आर्टिकल/इंटरव्यूमोदी सरकार में कारपोरेट की नाराजगी झेलने का साहस नहीं

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मोदी सरकार में कारपोरेट की नाराजगी झेलने का साहस नहीं

राजेश सचान

किसान आंदोलन के 38 वें दिन कल सुबह गाजीपुर बार्डर में प्रदर्शन स्थल से एक किसान द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या करने की विचलित करने वाली खबर आयी है। अब तक तीन दर्जन से ज्यादा लोगों की मौतें किसान आंदोलन में हो चुकी हैं। किसानों की शहादत, मोदी सरकार की हठधर्मिता और आंदोलन के विरूद्ध भारी दुष्प्रचार से किसानों में विक्षोभ चरम पर है। बावजूद इसके किसानों ने धैर्य व संयम रखते हुए एक बड़े लक्ष्य को हासिल करने का जज्बा दिखाया है। भाजपा, सरकारी मशीनरी और कारपोरेट जगत ने किसानों पर जबरन थोपे गये काले कृषि कानूनों को किसानों व देशहित में बताने और किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी है, फिर भी वह इन कानूनों के पक्ष में तर्क पेश करने में पूरी तरह विफल रही है। यही वजह है कि किसान आंदोलन का दायरा व्यापक होता जा रहा है। अब समाज के सभी तबके खास तौर पर युवा और मध्य वर्ग किसान आंदोलन का खुलकर समर्थन कर रहे हैं। वैसे इन कानूनों के जो बेहद खतरनाक पहलू हैं उसकी बारीकियों की पूरी तौर पर आम जनता को जानकारी भले न हो लेकिन अनुभव आधारित ज्ञान से जनता ने इसके मुख्य पहलूओं की सही शिनाख्त की है, जिससे देशव्यापी आम धारणा बन चुकी है कि इन कानूनों का असली मकसद किसानों व देश की भलाई नहीं बल्कि अंबानी-अडानी और कारपोरेट्स की लूट को अंजाम देने के लिए है। यही वजह है कि तमाम प्रोपेगैंडा के बावजूद भाजपा इन कानूनों का औचित्य सिद्ध नहीं कर पा रही है।

गौरतलब है कि तीनों अध्यादेशों को किसानों के प्रबल विरोध के बीच संसद में लोकतांत्रिक प्रक्रिया व नियम-कानूनों की धज्जियां उड़ाकर पारित किया गया था। इसी सत्र में लेबर कोड बना कर लम्बे संघर्षों के बाद हासिल मजदूरों के अधिकारों को कुचल दिया गया। आखिर मोदी सरकार इतने प्रबल विरोध के बावजूद इन कानूनों के क्रियान्वयन को लेकर इतना आतुर क्यों है, इसे समझने की जरूरत है। व्यापक कृषि सुधार के नाम पर लागू किये जा रहे इन कानूनों का मकसद कारपोरेट्स को हित हैं न कि किसानों की भलाई। बिजली, पानी, शिक्षा व स्वास्थ्य, परिवहन, रेलवे जैसे सभी क्षेत्रों में निजी क्षेत्र द्वारा नया इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में पूंजी निवेश का एक भी उदाहरण नहीं है। जहां तक निजी क्षेत्र की भूमिका की बात है उसे महामारी जैसे मौके पर लाकडाउन में देखा जा चुका है कि किस तरह निजी स्वास्थ्य सेवाओं से लेकर अन्य सेक्टर ने हाथ खड़े कर दिये। कृषि सुधार के नाम पर लाये गये काले कृषि कानूनों का मकसद भी इससे अलग नहीं है। कारपोरेट जगत की नजर एफसीआई के गोदामों पर है और इन्हीं के लाभ के लिए सरकारी खरीद व सार्वजनिक वितरण प्रणाली बंद करने की भी योजना है। एमएसपी की गारंटी न होने का परिणाम यह होगा कि कारपोरेट्स किसानों की फसलें मनमाने ढंग से बेहद कम दरों से खरीदेंगे और कई गुना ज्यादा दर से बेंचेंगे। वायदा कारोबार को भी खुली छूट मिल जायेगी। कुछ उदाहरण से आप खुद समझ सकते हैं। किसान को फसल के दौरान टमाटर 2 रू0, आलू 5 रू0, प्याज 5 रू0 रेट मिलना भी मुश्किल होता है, सब्जियों को किसानों द्वारा फेंक देने की घटनायें अक्सर सुनाई देती हैं लेकिन शहरों में 5 से 10 गुना तक अदा करना पड़ता है। अगर राज्य नियामक की भूमिका की अपनी जवाबदेही से भी हट जायेगा और सब कुछ बाजार के हवाले कर दिया जायेगा तो इसके बेहद खतरनाक परिणाम होंगे। कोई भी सरकार किसानों की उपज की वाजिब दाम पर खरीद की गारंटी और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने से अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी भाग नहीं सकती है। लेकिन मोदी सरकार कारपोरेट के डिक्टेट पर काम कर रही है और कृषि लागत मूल्य आयोग को संवैधानिक दर्जा देने और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप फसलों के दाम निर्धारित कर खरीद की गारंटी के लिए तैयार नहीं है। मोदी सरकार में कारपोरेट वित्तीय पूंजी की नाराजगी झेलने का साहस नहीं है, इसी लिये किसान आंदोलन इनके लिए संकट है। किसानों का मनोभाव बन गया है कि खेती किसानी का पूरा क्षेत्र कारपोरेट्स के हवाले कर देना चाहते हैं इसलिए देश भर का किसान गोलबंद हो रहा है।

किसानों के जारी इस ऐतिहासिक आंदोलन से समाज में असीम ऊर्जा पैदा हुई है जो निश्चित तौर पर भविष्य में राष्ट्र निर्माण का मार्ग प्रशस्त करेगी। देश भर में सिविल सोसायटी के लोग, समाज निर्माण व बदलाव की राजनीति में लगे लोग जनता को इस आंदोलन के पक्ष में खड़ा कर रहे हैं। छात्र-युवा भी इस सच्चाई को जान रहे हैं। अच्छी बात है कि बेइंतहा बेकारी के सवाल पर आंदोलन खड़ा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श शुरू हुआ है और इन नीतियों के खिलाफ लोग उतर रहे हैं। 24 लाख रिक्त पदों को भरा नहीं जा रहा है, रोजगार सृजन नहीं हो रहा है। आज इस सवाल को प्रमुखता से राष्ट्रीय विमर्श में स्थापित करने का भी मौका है। मजदूर वर्ग पहले ही आहत है और इन हमलों का प्रतिवाद करता आया है। आज जरूरत है कि किसान, छात्र-युवा और मजदूर तीनों आंदोलनों का समायोजन हो, तो 2021 शुभ होगा , यही हमारा ऐतिहासिक दायित्व है। देश में ऐसी किसान आधारित अर्थव्यवस्था बने जिससे आजीविका का सवाल हल हो सके। हमारा युवा मंच इन आंदोलनों के साथ है।

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