तौक़ीर सिद्दीक़ी
सीताराम येचुरी, देश की राजनीति में अपनी प्रसांगिकता लगभग खो चुकी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के संभवतः अंतिम पुरोधा अब हमारे बीच नहीं रहे. उनका 72 वर्ष की उम्र में निधन हो गया, वो कई दिनों से अस्पताल में भर्ती थे. सिर्फ 17 बरस की छोटी उम्र में ही वो राजनीती में उतर गए थे और 25 बरस उन्होंने लाल झंडे को उठाये रखा. येचुरी वो नेता थे जिनकी वजह से इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति पद से इस्तीफा देना पड़ा था. 1990 के दशक में जब सी.पी.एम. पश्चिम बंगाल और केरल के अलावा अन्य कई राज्यों में एक बड़ी राजनीतिक शक्ति थी वो पार्टी के पोस्टर बॉय के रूप में मशहूर हुए थे. राष्ट्रीय मीडिया में होने वाली डिबेट्स में येचुरी का चेहरा एक ज़रूरी अंग था, हर मंच पर वो पार्टी का पक्ष मज़बूती से रखते थे. सिर्फ पार्टी का ही नहीं पूरे विपक्ष की बातों को भी वो जिस तरह तरह से रखते थे कि सत्ता पक्ष के लोग भी उनके कायल हो जाते थे.
सीताराम येचुरी का जन्म 1952 में चेन्नई में हुआ था और शुरुआती शिक्षा हैदराबाद में हुई। इसके बाद छात्र जीवन में ही सीताराम येचुरी तेलंगाना आंदोलन से जुड़ गए और 1969 तक वे इसे लेकर होने वाले प्रदर्शनों में हिस्सा लेते रहे, लेकिन 1970 में दिल्ली आने के बाद उन्होंने इस आंदोलन से खुद को अलग कर लिया। तेलंगाना आंदोलन का उद्देश्य तेलंगाना को आंध्र प्रदेश से अलग करना था। उनकी जगाई हुई अलख ने यह 2013 में मूर्त रूप लिया और उनकी 1969 तक तेलंगाना के आंदोलन के लिए की गयी म्हणत रंग लाई और यूपीए सरकार आंध्र प्रदेश के विभाजन के लिए तैयार हुई और अलग तेलंगाना राज्य की स्थापना हुई। सीताराम येचुरी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफन कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई की, फिर वो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय आ गए और छात्र राजनीती का हिस्सा बन गए, येचुरी 1977-78 में जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के पहले अध्यक्ष बने। 25 जून 1975 को देश में आपातकाल घोषित हो गया, येचुरी उस समय JNU का ही हिस्सा थे। उन्होंने इमरजेंसी का विरोध करने का फैसला किया और संयुक्त छात्र महासंघ का गठन किया। इस संगठन के बैनर तले येचुरी ने इमरजेंसी के खिलाफ इंदिरा गाँधी के घर तक मार्च भी निकाला। इंदिरा गाँधी के घर तक मार्च निकालने की ठोस वजह भी थी क्योंकि इंदिरा गाँधी जेएनयू की कुलपति भी थीं. कहते हैं कि जब इंदिरा गाँधी ने येचुरी से उनके घर तक मार्च निकालने की वजह पूछी तो येचुरी ने कहा कि एक तानाशाह को विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर नहीं रहना चाहिए। मजबूरन इंदिरा गांधी ने जेएनयू के कुलपति पद से इस्तीफा देना पड़ा। हालाँकि इस इस्तीफे के कुछ दिनों बाद ही सीताराम येचुरी को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया।
सीताराम येचुरी को 1978 में सी.पी.एम. की छात्र इकाई स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया का संयुक्त सचिव बनाया गया और फिर1984 में येचुरी को SFI का प्रमुख बनाया गया। अबतक SFI के प्रमुख बंगाल या केरल से होते थे, येचुरी को एसएफआई का अध्यक्ष बनाकर सी.पी.एम. ने उस परंपरा को तोड़ा। 1992 में येचुरी सीपीएम के पोलित ब्यूरो में शामिल हो गए और फिर केंद्रीय राजनीति करने लगे। 2004 में एनडीए के खिलाफ संयुक्त विपक्षी मोर्चा बनाने में सीताराम येचुरी ने पर्दे के पीछे बड़ी भूमिका निभाई थी। उन्होंने तत्कालीन सीपीएम महासचिव कामरेड सुरजीत सिंह के साथ मिलकर सभी दलों को एकजुट करने का काम किया था और यूपीए का गठन हुआ था । 2004 में संयुक्त यूपीए अटल बिहारी वाजपेयी वाले एनडीए ग्रुप को केंद्र से हटाने में सफल रहा था। 2004 में बनी मनमोहन सरकार बनने के बाद यूपीए का कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तैयार करने में भी सीताराम येचुरी ने अहम महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 2008 में जब सीपीएम ने कांग्रेस से समर्थन वापस लेने का निर्णय लिया तो उस निर्णय से येचुरी बिलकुल सहमत नहीं थे। उन्होंने इसे पार्टी के लिए बहुत खतरनाक बताया था लेकिन पोलित ब्यूरो के फैसले की वजह से येचुरी इसका खुलकर विरोध नहीं कर पाए थे। हालाँकि येचुरी को जिस बात का डर था वो सही साबित हुआ और देश की राजनीति से लेफ्ट का पराभव शुरू हो गया. 2005 में सीताराम येचुरी राज्यसभा सदस्य बने और 2015 में सीपीएम के महासचिव। उस समय त्रिपुरा में सीपीएम की सरकार थी और केरल और बंगाल में वह दुसरे नंबर की पार्टी थी। 2016 में केरल में तो सीपीएम सत्ता में आई लेकिन पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में उसका सफाया हो गया। पश्चिम बंगाल में उसका जनाधार बिलकुल सिमट गया, ऐसा लग ही नहीं रहा था कि ये वहीँ पार्टी है जिसने बंगाल में 25 बरस लगातार शासन किया था.
सीपीएम के महासचिव के नाते येचुरी ने पार्टी को बंगाल में पुनर्जीवित करने की बहुत कोशिश की और कई प्रयोग किए। यहाँ तक कि कांग्रेस के साथ गठबंधन भी किया लेकिन येचुरी का कोई भी प्रयोग सफल नहीं हुआ और अब उसका वजूद सिर्फ केरल तक सिमटकर रह गया है. हालाँकि देश के कई हिस्सों में आज भी पार्टी का काडर मौजूद है, अभी उसके पास 1.76 फीसदी वोट है जिसने लोकसभा चुनाव में उसे चार सीटें भी दिलाई लेकिन उसके अपने गढ़ पश्चिम बंगाल से उसका सफाया हो चूका है और कहीं न कहीं पार्टी का ये प्रभाव येचुरी के कार्यकाल में हुआ. आज जब वो दुनिया में नहीं हैं तो सभी उन्हें याद कर रहे हैं. येचुरी उन नेताओं में रहे हैं जिन्होंने राजनीति में नैतिकता को कभी नहीं छोड़ा। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.