रंजीता सिन्हा
अंधेरे में चिराग जलाकर जिस राजनीतिक विरासत को राम विलास पासवान ने रौशन किया, उस विरासत के मौजूदा खेवनहार से ‘चिराग तले अंधेरा’ की कहावत वाकई इत्तेफाक रखती है। राम बिलास के बेटे चिराग पासवान ही अपने पापा की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी के खेवनहार बने और खुद के चिराग कहलाने की खुशफहमी में यह भूल ही गये कि, उनके नीचे अंधियारा गहराता ही जा रहा है। चिराग को उनके चाचा ने ही पार्टी से बेदखल कर दिया। जाहिर है ऐसे में पार्टी के चिराग की लौ लपलपा रही है, जिसको बुझने से पहले बचा लेने वाला ही, सीनियर पासवान की छोड़ी राजनीतिक विरासत का असल वारिस बन जाएगा।
मामला कुछ उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरीखा ही है, बस अंतर यह है कि, यहां मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत को कथित जबरनतौर पर ही सही बेटे अखिलेश ने संभाल लिया। इतना ही नहीं मुलायम के साथ कंधा से कंधा मिलाकर पार्टी को खड़ा करने वाले चाचा शिवपाल यादव को भी बाहर का ही रास्ता देखना पड़ा। बिहार की लोजपा और यूपी की सपा में एक और अंतर यह है कि, सपा संस्थापक मुलायम के जीवित रहते उनकी राजनीतिक विरासत को लेकर खींचतान हुई और लोजपा के संस्थापक राम विलास पासवान के मृत्यु के बाद पार्टी की कमान संभालने की रस्साकशी है।
हकीकत यह है कि कोई भी विरासत यूं ही नहीं खड़ी हो जाती। लोक जनशक्ति पार्टी की बात करें तो इसके संस्थापक राम विलास पासवान का जन्म बिहार के खगरिया जिले के शाहरबन्नी गांव में हुआ था। वह एक अनुसूचित जाति परिवार में पैदा हुये थे। 1946 में जन्मे पासवान का चयन पुलिस सेवा में हो गया था, लेकिन उन्होंने अपने मन की सुनी और राजनीति में चले आए। पहली बार 1969 में वह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक निर्वाचित हुए। वह आठ बार लोकसभा के सदस्य चुने गए और कई बार हाजीपुर संसदीय सीट से सबसे ज्यादा वोटों के अंतर से जीते। समाजवादी आंदोलन के स्तंभों में से एक पासवास बाद के दिनों में बिहार के प्रमुख दलित नेता के रूप में ऊभरे और जल्दी ही राष्ट्रीय राजनीति में अपनी विशेष जगह बना ली। 1990 के दशक में दलितों से जुड़े मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने में पासवान की भूमिका महत्वपूर्ण रही।
सीनियर पासवान ने अपने राजनीतिक जीवन के 32 सालों में 11 चुनाव लड़े नौ जीते। हालांकि, इस बार उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन सत्रहवीं लोकसभा में उन्होंने मोदी सरकार में एक बार फिर से उपभोक्ता मामलात मंत्री पद की शपथ ली थी। पासवान के नाम पर छह प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का अनूठा रिकॉर्ड भी है। आपातकाल विरोधी आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण जैसे दिग्गजों से लोकसेवा की सीख लेने वाले पासवान तेजतर्रार समाजवादी के रूप मे उभरे।
बहरहाल, आज की तारीख में बिहार की राजनीति के कद्दावर नेता राम विलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी में कलह मची है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि, आखिर चिराग तले अंधेरा क्यों हो गया? क्यों युवा चिराग के खिलाफ बगावती सुर इतने तेज हो गए की अध्यक्ष पद भी गंवाना पड़ गया?
दरअसल चिराग पासवान, पिता रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद से सारे फैसले खुद ही लेने लग गए थे। वो किसी भी सांसद या पार्टी के पदाधिकारी से कोई राय नहीं लेते थे। बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद चिराग पासवान ने एलजेपी के कई नेताओं से दूरी भी बना ली थी। सांसदों से भी चिराग न के बराबर मिल रहे थे। पार्टी के कई नेताओं का तो ये भी मानना है कि चिराग पासवान हर फैसला अपने राजनीतिक सलाहकार सौरव पांडेय की सलाह पर लेते रहे। उनकी ही सलाह पर एलजेपी ने बिहार में एनडीए से बाहर जाकर चुनाव लड़ा, जिसके नतीजे सबके सामने हैं।
नतीजा यह है कि, चाचा पारस ने सर्व सम्मति से चिराग को अध्यक्ष पद से हटा दिया। इधर चिराग ने बागी उन पांच सांसदों को ही पार्टी से निष्कासित कर दिया। कुलमिलाकर राजनीतिक विरासत को हाथ में रखने की रस्साकशी सीनियर पासवान के खून के रिश्तों के बीच ही है। याद कीजिए चिराग ने अपने पिता की मृत्यु के बाद ट्वीट किया था- पापा अब आप इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मुझे पता है आप जहां भी हैं, हमेशा मेरे साथ हैं। अब देखना यह होगा कि, चिराग के यही इमोशंस क्या पिता सरीखा सबकुछ नियंत्रित कर लेने का अत्मिक बल उन्हें दे सकेंगे?