अमित बिश्नोई
चुनाव के दौरान कुछ सीटें ऐसी होती हैं जो अन्य के मुकाबले ज़्यादा चर्चा में रहती हैं , आप इन्हे VIP और VVIP सीट के नाम से भी जानते हैं , ऐसी ही एक सीट उत्तर प्रदेश के रामपुर की है, या फिर ऐसा भी कह सकते हैं कि आज़म खान वाले रामपुर की है. विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा, रामपुर सीट की चर्चा हमेशा ज़्यादा होती है. इस बार भी रामपुर की सीट चर्चा में बनी हुई है, वजह है कि आज़म खान एंड फैमिली इस समय जेल में है तो चुनाव में सीधे तौर पर हिस्सेदारी नहीं ले सकते, मगर जेल रहते हुए उनकी पूरी कोशिश है कि चुनाव से वो अलग न रहें इसलिए उम्मीदवारों का चुनाव हो या फिर घोषित उम्मीदवार का समर्थन, चर्चा में आज़म खान और रामपुर की लोकसभा सीट है.
रामपुर में पहले दौर में ही मतदान है, इस लिहाज़ से सिर्फ 15 दिन शेष बचे हैं लेकिन रामपुर के माहौल में एक ख़ामोशी है, लोग चुप हैं. वजह क्या है इसपर तरह तरह की बातें हैं। आम तौर पर रामपुर में चुनाव के दौरान खूब बयानबाज़ी होती रही है, ये बयानबाजियां आज़म खान और उनके लोगों की तरफ से ही होती थीं, उन बयानबाज़ियों से आज़म खान और सपा को मीडिया हाइप तो मिलती थी मगर विवाद भी खूब पैदा होते थे. उन्हीं विवादों का नतीजा है जिसका खमियाज़ा आज आज़म खान भुगत रहे हैं, वो बयानबाजियां उनके जेल में होने की वजह से बिलकुल बंद हैं. उनके चेले चपाड़ों में भी थोड़े शोर शराबे के बाद ख़ामोशी छाई हुई है. आने वाली परिस्थितियों को देखते हुए वो भी इस आंकलन में जुटे हुए हैं कि क्या अब आज़म खान का विपल्प ढूँढा जाय और वक्त के साथ चला जाय.
लेकिन उनके सामने भी समस्या ये है कि आज़म खान नहीं तो फिर कौन जिसके पीछे चला जाय. दरअसल आज़म खान ने रामपुर में सपा का कोई दूसरा नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया, आज़म की अनुपस्थिति में जो भी सामने आया वो उनका प्यादा ही आया, यही वजह है कि अखिलेश यादव को जेल में जाकर रामपुर के लिए आज़म खान को मनाना पड़ता है लेकिन खां साहबी के नशे में चूर आज़म किसी और की बात सुनने को तैयार ही नहीं। आज़म को लगता है कि रामपुर में अगर आज़म नहीं तो फिर सपा नहीं, वो समझते हैं कि रामपुर में अखिलेश के लिए आज़म खान मजबूरी हैं। कुछ हद तक ये बात दुरुस्त भी है और इसके ज़िम्मेदार खुद अखिलेश यादव हैं जिन्होंने पिछले पांच सालों में रामपुर में आज़म के अलावा कोई और नेतृत्व खड़ा करने की कोशिश ही नहीं की, ये जानते हुए भी कि आज़म खान और उनकी पूरी फैमिली कानूनी शिकंजे में हैं और ये शिकंजा हाल फिलहाल तो हटने वाला नहीं।
हालाँकि अखिलेश ने अब थोड़ी हिम्मत दिखाई है और आज़म खान की मंज़ूरी और समर्थन के बिना मोहिबुल्लाह नदवी को रामपुर से अपना उम्मीदवार बना दिया। अखिलेश का ये दांव फिलहाल सिर्फ चुनावी ही है क्योंकि मोहिबुल्लाह नदवी का कोई राजनीतिक वजूद नहीं है , वो सिर्फ इसलिए उम्मीदवार बने हैं क्योंकि सपा को रामपुर का मुस्लिम वोट चाहिए जो अक्सरियत में है. मोहिबुल्लाह नदवी की पहचान सिर्फ इतनी है कि वो समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हैं, चुनाव में वो कामयाब होते हैं या नहीं ये तो 4 जून को पता चलेगा, अखिलेश अपने दांव में कामयाब होंगे या नहीं ये आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इतना ज़रूर है कि अखिलेश ने अब आज़म खान के बिना भी सोचना शुरू किया है.
रामपुर के पिछले कुछ चुनावों को अगर देखें तो रामपुर में आज़म खान का तिलस्म टूटता हुआ मालूम पड़ रहा है, फिर वो चाहे लोकसभा का चुनाव हो या फिर विधानसभा का. हर चीज़ की एक सीमा होती है, अखिलेश को भी समझ में आ गया कि रामपुर में कब तक आज़म के सहारे चला जाय, वक्त बदला है, हालात बदले हैं, सपा के कई किले इसलिए ढह चुके हैं क्योंकि वहां पर उसने हार की कभी कल्पना ही नहीं की और इसीलिए कोई दूसरा नेतृत्व भी नहीं खड़ा किया। विकल्प हर एक को चाहिए, समर्थकों को भी, उन्हें भी चॉइस मिलनी चाहिए। भाजपा की कामयाबी का राज़ शायद यही है कि वहां पर किसी पर निर्भरता नहीं है। अपने सिटिंग MP या MLA को हटाने में भी वहां कोई गुरेज़ नहीं। वरुण गाँधी इसकी ताज़ा मिसाल है, सिर्फ वरुण ही नहीं इस चुनाव में भाजपा ने सौ से ज़्यादा सांसदों के टिकट काट दिए हैं. निर्भरता किसी भी पार्टी के लिए घातक होती है. सपा के लिए एक तरह से ये अच्छा कदम है कि उसने रामपुर में आज़म की बिना सोचना शुरू कर दिया है. इस चुनाव में भले ही उसे इसका परिणाम न मिले लेकिन आने वाले चुनावों में उम्मीद तो बनेगी।