अमित बिश्नोई
संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर को लेकर गृह मंत्री अमित शाह के विवादित बयान पर सियासी हंगामा मचा हुआ है। कांग्रेस पार्टी ने देशभर में इसके खिलाफ अंबेडकर सम्मान मार्च निकाले है, कलेक्ट्रेट पहुंचकर लोग राष्ट्रपति को संबोधित पत्र सौंपकर गृह मंत्री के इस्तीफे की मांग की है। हर राज्य में प्रेस वार्ताएं करके अंबेडकर का अपमान करने के लिए अमित शाह से माफ़ी की मांग की है, कुल मिलाकर कांग्रेस पार्टी ने अमितशाह की आंबेडकर पर संसद में अपमानजनक सम्बोधन को एक मुद्दा बना दिया है और कह सकते हैं कि एक तरह दलितों के मसीहा के सम्मान के लिए लड़ने वाली मुख्य राजनीतिक पार्टी बन गयी है. अब जब अम्बेडकर के सम्मान में कांग्रेस मैदान में उतरी तो शुरू में मायावती की अगुआई वाली बहुजन समाज पार्टी ने इसको बड़े हलके में लिया लिया और सिर्फ एक्स पर ट्वीट के सहारे काम चलाने की कोशिश की लेकिन जब देखा कि बात तो हाथ से निकली जा रही है तब अम्बेडकर पर एकाधिकार जताने वाली और दूसरे दलों के दलित प्रेम को ढोंग बताने वाली मायावती भी मैदान में उतर आई। बसपा प्रमुख मायावती ने जिला मुख्यालयों पर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का ऐलान किया और दिन भी वही चुना जो कांग्रेस ने पहले से ही घोषित किया था। लेकिन दोनों दलों के विरोध प्रदर्शन के बीच एक ख़ास अंतर नज़र आया. कांग्रेस का विरोध प्रदर्शन जहाँ सिर्फ आंबेडकर और अमित शाह द्वारा उनके अपमान पर केंद्रित रहा वहीँ बसपा के प्रदर्शन में अमित शाह और भाजपा से ज़्यादा कांग्रेस पार्टी और राहुल गाँधी का विरोध नज़र आया.
मायावती के भतीजे और उनके उत्तराधिकारी आकाश आनंद ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी पर हमला बोला। आकाश आनंद कहते हैं कि पहले गृह मंत्री ने संसद में बाबा साहब का अपमान किया और फिर राहुल गांधी, प्रियंका गांधी ने हमारी नीली क्रांति को फैशन शो बना दिया। मायावती के राजकुमार ने भी एक तरह से अमित शाह की ही ज़ुबान बोलते हुए तंज कसते हुए कहा कि वोट के लिए बाबा साहब के नाम का इस्तेमाल करना आजकल फैशन बन गया है। अमित शाह ने भी कुछ फैशन वाली बात ही कही थी और कहा था इतना नाम अगर भगवान् का लेते तो भाग्य बदल जाते। ऐसे में देखा जाय तो बसपा के युवराज और अमित शाह के बयान के बीच ज़्यादा अंतर नहीं है. आकाश आनंद के बयान से स्पष्ट होता है कि बीएसपी का विरोध गृहमंत्री के अंबेडकर पर दिए गए बयान के खिलाफ तो था लेकिन निशाने पर राहुल गाँधी, प्रियंका वाड्रा और कांग्रेस पार्टी थी। मायावती खुद कई बार बीजेपी और कांग्रेस को एक ही सिक्के के दो पहलू बता चुकी हैं। पहले मायावती और अब आकाश आनंद, बीएसपी नेता अंबेडकर के मुद्दे पर बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के खिलाफ मुखर दिखाई दे रहे रहे हैं, ऐसे में सवाल यह है कि इसके पीछे उद्देश्य क्या है? चलिए समझने की कोशिश करते हैं.
भले ही अंबेडकर के नाम पर ही क्यों न हो, राहुल गांधी ने कांग्रेस को इंडिया ब्लॉक् में बढ़त तो दिला ही दी है. मायावती चार बार यूपी की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, बल्कि बीएसपी का यूपी ही नहीं मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा और राजस्थान की राजनीति में भी अच्छा खासा असर रहा है। लेकिन 2012 के यूपी चुनाव से पार्टी का ग्राफ गिरना ऐसा शुरू हुआ कि बसपा से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी छिन गया। पार्टी लोकसभा में जीरो और यूपी विधानसभा में एक सीट पर सिमट गई। सबसे खराब हालात में भी करीब 21 फीसदी वोट शेयर बरकरार रखने वाली बीएसपी को 2022 के यूपी चुनाव में करीब 16 फीसदी वोट मिले और वह सिर्फ एक सीट जीत सकी। हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में बीएसपी का वोट शेयर 10 फीसदी से भी कम रहा। उधर यूपी की दलित राजनीति में चंद्रशेखर रावण की अगुवाई वाली आजाद समाज पार्टी का तेजी से बढ़ता प्रभाव भी बीएसपी के लिए चिंता का सबब बन गया है। लोकसभा चुनाव में बीएसपी जीरो पर सिमट गई जबकि चंद्रशेखर संसद पहुंचने में कामयाब हो गए। वैसे अंबेडकर विवाद पर चंद्रशेखर का रवैया भी भाजपा की मदद करने वाला जैसा ही है। चंद्रशेखर का कहना कि इस मामले में गृह मंत्री ने सफाई दे दी है अब इस विवाद को खत्म करना होगा। चंद्रशेखर का ये बयान दलित राजनीति की समझ रखने वाले लोगों की भी समझ के बाहर है. इधर बीएसपी को अपने दलित आधार को मजबूत करने का मौका दिख रहा है और पार्टी इसे हाथ से जाने नहीं देना चाहती। देश में लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस के लंबे राज के पीछे सवर्ण-दलित और मुस्लिम वोटों का गणित माना जाता है। बीएसपी जैसी पार्टियों के उदय के बाद दलित और समाजवादी पार्टियों के उदय के बाद मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस से छिटक गया। सवर्ण वोटर भी बीजेपी की ओर शिफ्ट हो गए। दलित कांग्रेस को वोट देते रहे हैं, इसलिए बीएसपी को डर है कि कहीं दलित समाज फिर से कांग्रेस को वोट देने की आदत न डाल ले, जैसा कि लोकसभा चुनाव में नज़र भी आया। यही वजह है कि बीएसपी बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस पर हमला करती नजर आ रही है।
बसपा के लिए अगला इम्तेहान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं. दिल्ली में दलित वोटरों की अच्छी खासी तादाद है। 2008 के दिल्ली चुनाव में 14 फीसदी वोट शेयर के साथ बसपा ने दो सीटें हासिल की थीं और दिल्ली विधानसभा में मौजूदगी दर्ज कराई थी लेकिन 2020 के चुनाव में बसपा अपना खाता भी नहीं खोल पाई। पिछले दिल्ली चुनाव में बीएसपी को एक फीसदी से भी कम वोट मिले थे। बसपा अपना खोया हुआ सम्मान वापस पाना चाहती है लेकिन कांग्रेस पार्टी उसकी राह का रोड़ा बन रही है, बसपा को नज़र आ रहा है कि कांग्रेस पार्टी का पुराना वोट बैंक उसकी तरफ दशकों बाद आकर्षित हो रहा है इसलिए आंबेडकर के सम्मान को चोट पहुँचाने वाले अमित शाह के बयान पर भाजपा को घेरने की जगह उसके निशाने पर कांग्रेस पार्टी और उसके नेता नज़र आ रहे हैं.