सुनील शर्मा
लो जी लो कर लो बात, जिस देश में लोगों की गुहार नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह जाती थी उसमें एक थप्पड़ की गूंज ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी। जो नेता अपनी जीत पर फूले न समा रहे थे अब वो शपथ लेने से पहले अपने चारों ओर देखकर-संभलकर चल रहे हैं। न जाने कब, कहां से एक ढाई किलो का हाथ आ जाये और इज्जत का बंटाधार कर जाये। चंढीगढ़ में चंडी का रूप धारण कर एक महिला ने नेताइन के गाल पर थप्पड़ जो लगाया वो न जाने कितनो को दुखीः, परेशान और हैरान कर गया। लोकसेवक की ऐसी सेवा हुई की नेताओं को नई-नई मिली इज्जत पानी में जाती दिखने लगी।
चुनावों की सरगर्मी खत्म होते ही शर्माजी ने जरा आराम करने की सोची थी लेकिन ये थप्पड़ न जाने कहां से आ गया। इस थप्पड़कांड पर नेताजी के विचार जानने के लिये शर्माजी ने उठाया कागज-कलम और निकल गये नेताजी के आशियाने की ओर। शर्माजी को लग रहा था की नेताजी शपथ ग्रहण करने की तैयारी कर रहे होंगे, लोग गले मिलकर उन्हें बधाई दे रहे होंगे। मगर नेताजी के घर तो अजब ही नजारा था। कुर्सी पर बैठे नेताजी के आगे एक विशालकाय टेबल रखी थी और बगल में दो मुस्टंडे हाथ बांधे खड़े थे। नेताजी ने तो मानो कोविड प्रोटोकॉल लागू कर रखा था। मजाल थी के एक भी बंदा नेताजी के पास आ सके। सब से हाथ जोड़ कर नमस्ते करने वाले नेताजी किसी के गले मिलना तो दूर उसके हाथ से गुलदस्ता भी नहीं ले रहे थे। किसी को भी जूते पहन कर अंदर आने की भी इजाजत नहीं थी। हर आने वाले पर यूं निगाह रखी जा रही थी मानों नेताजी को जेड प्लस सिक्योरिटी मिल गयी हो।
काफी देर बाद जब थोड़ा ठहराव हुआ तो शर्माजी थोड़ा नेताजी के पास खिसके। शर्माजी के पास आते ही नेताजी थोड़ा कसमसाये और शर्माजी के पैरों की ओर देखा। नेताजी के मन की बात समझ कर शर्माजी ने कहा, नेताजी आप चिंता न करें, हम उस तरह के पत्रकार नहीं हैं। हम जूते सिर्फ पैरों में पहनने के लिए ही इस्तेमाल करते हैं। शर्माजी की बात सुनकर नेताजी ने झेंप मिटाते हुए कहा, नहीं-नहीं शर्माजी आप तो घर के आदमी हो आपसे क्या डर। चिंता तो यह है की जब शपथ लेने से पहले ही थप्पड़ों की शुरूआत हो गयी है तो पांच साल बितेंगें कैसे? अब नेता बने हैं तो जनता के बीच जाना ही पड़ेगा। अब तब तो कहीं जूते मिल जाते थे तो कहीं स्याही। जूता एक ही मिलता था और स्याही पोंछ देते थे। मगर अब तो थप्पड़ों से कार्यकाल की शुरूआत हो रही है। थप्पड़ की गूंज तो भईया दूर तक जावे है। आदमी खाता भी है और कह भी नहीं पाता। और शर्माजी इस बार तो सरकार भी जोड़-तोड़ से बनी है। अगर बात ज्यादा आगे बढ़ी तो सरकार खिसक जायेगी।
नेताजी को हौंसला देते हुए शर्माजी ने कहा, चिंता क्यों करते हैं नेताजी, लोकतंत्र में जनता का गुस्सा तो सहन करना ही पड़ता है। इस पर खिसिया कर नेताजी बोले, शर्माजी आप समझ नहीं रहे हैं। तब किसान मां की बेटी में इतना गुस्सा है तो किसानों में कितना होगा। अब बताओ इनसे बचकर जायेंगे भी तो कहां ? ऊपर से विपक्ष भी अब मजबूती से हाथ धोकर पीछे पड़ा है। लगेगा एक, बतायेंगे चार, एक हाथ चारों ओर बदनामी करा देगा। अभी तो बात महिलाओं में आपस की थी, यदि किसी महिला ने हम पर हाथ छोड़ दिया तो बताओ हम तो पलटवार भी न कर सकेंगे।
नेताजी का दर्द समझ चुके शर्माजी अपने मन की बात भी जुबां पर आने से रोक न सके और बोले, नेताजी थप्पड़ तो पहले भी पड़ रहे थे मगर आप इतने ऊंचे सत्ता सिंहासन पर बैठे थे की उन थप्पड़ों की आवाज आपको सुनाई नहीं दे रही थी। अन्नदाता कहे जाने वाले किसानों पर कभी पुलिस के थप्पड़ पड़ रहे थे तो कभी सर्द हवाओं के, कभी बरसात की बूंदे उनपर बरस रहीं थी तो कभी लू के थपेड़ें सहन कर रहे थे धरती के भगवान। जय जवान-जय किसान वाले देश में दोनों ही आमने-सामने खड़े कर दिये आपने। चुनाव के वक्त जिन किसानों के पैर पूजे उन्हीं की राह पर कीलें गढ़वा दीं आपने। किसानों को कभी खालिस्तानी कहा तो कभी आतंकवादी।
नेताती, जब किसान बॉर्डर पर शहीद हो रहे थे तब उनके परिवार की चीखें आपको सुनाई दे रही थी क्या? जब देश का नाम रोशन करने वाली महिला पहलवानों को पुलिस घसीट रही थी तब उनकी फरियाद आपके कानों तक पहुंची थी क्या? मांगों पर विचार करने के लिये भी आपने उनकी बात सुनी क्या? आश्वासन देकर धरना खत्म कराया लेकिन वादा पूरा किया क्या? नेताजी, आज एक थप्पड़ क्या लगा आपको लोगों के बीच जाने में डर लगने लगा। लेकिन जिस किसान परिवार का अपना चला गया, जो खिलाड़ी मेहनत कर देश के लिये कमाये अपने मेडल सड़क पर रख आया, उसका दर्द आपने महसूस किया था क्या? नहीं नेताजी नहीं किया। यदि जनता की बात सुन ही ली होती तो शायद जनता भी आपकी बात सुनती। लेकिन आपने तो सिर्फ अपने मन की कही, सुनी किसी की भी नहीं।
नेताजी, जनता ने आपको थप्पड़ मारा है मगर उसी जनता ने आपको फिर मौका भी दिया है। हो सके तो इस बार पहले वाली गलती न दोहराना, अपनी मन की तो कहना मगर जनता की भी जरूर सुनना। लोकतंत्र, लोक से बनता है तंत्र से नहीं, तो अपने तंत्र में लोक को भी शामिल करना। हर बार आप भी गुड़ नहीं दे पायेंगे मगर हर बार गुड़ जैसी बात तो करना। जनता को अपना परिवार कहते हैं तो परिवार के हर सदस्य को बराबरी का हक देना। पहले लोगो को समझाइये, अपना बनाइये, फिर अपने मन की करिये। यह देश आपका है, यह जनता आपकी है और इसको उम्मीद भी आपसे ही है। हो सके तो इस बार जनता को गलत साबित न कीजियेगा वरना…