अमित बिश्नोई
महाराष्ट्र में आज चुनावी शोर थम जायेगा। हर चुनाव की तरह ये चुनाव भी सत्ता बरकरार रखने और सत्ता हथियाने के लिए ही है. सत्ता में इस समय महायुति है, मुख्यमंत्री शिवसेना को दो फाड़ करने वाले एकनाथ शिंदे है वहीँ दुसरे सहयोगी एनसीपी को हथियाकर सत्ता में सहयोगी बने हैं, इसके बावजूद कहा जाय तो सरकार भाजपा ही चला रही है जो इस विधानसभा चुनाव में 149 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, मतलब वो इतनी सीटों पर चुनाव लड़ रही है कि गणित के हिसाब से वो अकेले सरकार बनाने में सक्षम हो सकती, दुसरे शब्दों में कहें तो शिवसेना शिंदे हो या फिर अजीत की एनसीपी, अगर नतीजे महायुति के पक्ष में आते हैं तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा ये सबसे बड़ा प्रश्न होगा और यही स्थिति महाविकास अघाड़ी में भी है, यहाँ पर सबसे ज़्यादा सीटें कांग्रेस लड़ रही है, दुसरे नंबर पर शिवसेना यूबीटी और तीसरे पर एनसीपी शरद पवार। यहाँ भी मुख्यमंत्री का नाम घोषित नहीं हुआ है लेकिन दावेदारी तीनों तरफ से है, उद्धव की तरफ से अपरोक्ष रूप से दावा भी पेश हुआ क्योंकि इस गठबंधन के पिछले मुख्यमंत्री वही थे. खैर मुख्यमंत्री की बात तो तब पैदा होगी जब जीत मिलेगी, उसी के बाद पता चलेगा कि कौन सा गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में है और उस गठबंधन में किस पार्टी की क्या स्थिति है.
फिलहाल मतदान से पहले की बात करें तो हरियाणा में चुनाव जीतकर भाजपा काफी उत्साह में है और यही वजह है कि भाजपा की तरफ से कहा जाने लगा है कि उसने महायुति में सबसे ज़्यादा कुर्बानी दी है इसलिए अब बारी दुसरे की है, मतलब शिंदे और अजित पवार की. संकेत साफ़ हैं, अमित शाह के इस इशारे को एकनाथ शिंदे समझ भी चुके हैं और इसीलिए कल उन्होंने कह भी दिया है कि वो मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल नहीं हैं, हालाँकि मुख्यमंत्री बनने के लिए ही उन्होंने शिवसेना को तोड़ा था. भाजपा हरियाणा की जीत के जोश पर सवार है और महाराष्ट्र में उसे आगे बढ़ाने के लिए जी जान से जुटी हुई है. बंटेंगे तो कटेंगे नारे के सहारे साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण में जुटी हुई है लेकिन शायद महाराष्ट्र और हरियाणा में काफी अंतर है. महाराष्ट्र की अपनी राजनीतिक डेमोग्राफी है और यहाँ पर साम्प्रदायिक मुद्दे कभी उतने हावी नहीं रहे जितने कि सामाजिक मुद्दे। यही वजह है पिछले लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में पानी की तरह पैसा बहाने और सांप्रदायिक मुद्दे उभारने के बावजूद प्रदेश की जनता ने भाजपा को कुछ ऐसा झटका दिया जो इससे पहले उसने कभी सहा नहीं था, 23 से उसको सीधे 9 पर ला पटका। देखा जाय तो मोदी जी को यूपी के बाद महाराष्ट्र ने सबसे बड़ा शॉक दिया था और वो अपने दम पर सरकार बनाने में काफी पीछे होकर तिलमिलाकर रह गए थे.
वहीँ महाविकास अघाड़ी ने 31 सीटें हथियाकर सबको चौंका दिया था, जिसमें कांग्रेस ने अपने दोनों सहयोगियों को पीछे छोड़ दिया था, हालाँकि विनिंग परसेंटेज में शरद पवार ने बाज़ी मारी थी. ऐसी पृष्ठभूमि में दोनों गठबंधन एक बार फिर उस लड़ाई में हैं जिसे हाल के दिनों में शायद सबसे महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित चुनावी लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है। जाहिर है, सवाल बड़ा यही है कि क्या भाजपा के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्ता बरकरार रख पायेगा? दरअसल महाराष्ट्र में भाजपा के सामने अलग ही चुनौतियाँ हैं, यहाँ पर सामुदायिक ध्रुवीकरण के लिए उतनी उपजाऊ सामाजिक-राजनीतिक जमीन नहीं है जितनी हरियाणा, यूपी, मध्य प्रदेश और दूसरे कई हिंदी भाषी राज्यों में है। महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का मुद्दा किसी भी सांप्रदायिक मुद्दे से काफी बड़ा है. ये मुद्दा ऐसा है जो मराठों और ओबीसी को विभाजित करता है. राहुल गाँधी की पदयात्राओं से बाद बनी नई राजनीतिक ज़मीन में भाजपा के नेतृत्व वाले महायुति की ओर OBC समुदाय के एकमुश्त झुकाव की संभावना न के बराबर है, इसका सीधा कारण यह है कि महाराष्ट्र में ओबीसी को भाजपा द्वारा पूरी तरह से अपने पक्ष में करने के लिए बहुत सारी पार्टियां मैदान में हैं। हालांकि, मराठों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। उनके वोट के अधिक एकजुट रहने की संभावना है। मराठा आंदोलन के नेता मनोज जरांगे पाटिल द्वारा भाजपा विरोधी रुख अपनाए जाने के बाद, मराठाओं की विरोधी लामबंदी महायुति के लिए सिरदर्द बनी रहेगी। मराठाओं की एकजुटता और अलग-अलग ओबीसी समूह राज्य की आबादी का लगभग 33 प्रतिशत और 37 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं। ऐसे में भाजपा अपने पक्ष में निर्णायक बदलाव के प्रति ज़्यादा आशान्वित नहीं है. संघ के इंटरनल सर्वे में इस बात की सम्भावना भी जताई गयी है, हालाँकि हरियाणा चुनाव की तरह संघ महाराष्ट्र में भाजपा के लिए पूरा ज़ोर लगाए हुए है.
इन सब वास्तविकताओं को समझते हुए, भाजपा पिछले कुछ वर्षों से महाराष्ट्र में कट्टर हिंदुत्व का सहारा लेकर अपना आधार बढ़ाने की कोशिश कर रही है। उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस द्वारा अपने सार्वजनिक भाषणों में इस्तेमाल की जाने वाली “वोट जिहाद” जैसी खुलेआम सांप्रदायिक शब्दावली इसका सबूत है। लेकिन राजनीतिक पंडितों के हिसाब से लोकसभा चुनावों में हिंदुत्व का मुद्दा भाजपा की गिरती किस्मत को नहीं संभल पाया और विधानसभा चुनाव में उसे इससे कोई मदद मिलेगी, ऐसा कोई कारण समझ में नहीं आता. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा रचित और आरएसएस द्वारा समर्थित “बटेंगे तो कटेंगे” की कहानी लोगों को पसंद नहीं आ रही है. इसका विरोध न केवल सहयोगियों बल्कि भाजपा के नेताओं की तरफ से भी हो रहा है। यहां तक कि मोदी जी को भी इस नारे को बदलकर “एक है तो सुरक्षित है” करना पड़ा। भाजपा यहाँ पर हरियाणा और मध्य प्रदेश की जीत का कॉकटेल पेश कर रही है. हरियाणा में चला बटेंगे तो कटेंगे का नारा और मध्य प्रदेश में सत्ता बरकरार रखने में मददगार रही लाड़ली बहन योजना जिसे महाराष्ट्र सरकार ने लड़की बहिन नामक नकद हस्तांतरण योजना का नाम दिया है.
एक बात और जो महायुति के पक्ष में बात काम नहीं कर रही है, वह है तीनों भागीदारों के बीच सामंजस्य की कमी। भाजपा और शिंदे सेना के बीच एक अघोषित युद्ध दिख रहा है। एकनाथ शिंदे काफी असहज स्थिति में नज़र आ रहे हैं क्योंकि उन्हें अपरोक्ष रूप से अल्टीमेटम मिल चुका है. महायुति की अगर जीत होती है तो उनकी स्थिति क्या होगी? क्या वो भी फडणवीस की तरह मुखयमंत्री से उपमुख़्यमंत्री बनना पसंद करेंगे। उन्हें ये अच्छी तरह मालूम है कि MVA को सत्ता से हटाने के लिए ही उन्हें एक अस्थायी व्यवस्था के रूप में अपनाया गया था. उधर अजीत पवार भी गठबंधन में होते हुए भी एकला चलो के फॉर्मूले पर आगे बढ़ रहे हैं, चुनावी अभियान में वो प्रधानमंत्री मोदी से दूरी बनाये हुए हैं. उनके उम्मीदवार अपने मंचों पर मोदी जी पोस्टर बैनर लगाने से इंकार कर रहे हैं. भाजपा एनसीपी के जिस उम्मीदवार पर असहज है उसका अजित पवार जमकर समर्थन कर रहे हैं. एक तरह से कहा जाय तो महायुति में ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आ रहा है जो एक राजनीतिक गठबंधन में नज़र आना चाहिए. अब ये वाकई सामंजस्य की कमी या फिर कोई चुनावी रणनीति, इसका पता तो नतीजे आने के बाद ही चलेगा। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है महायुति के लिए बहुत कठिन है डगर पनघट की. वैसे ये बात MVA के लिए भी कही जा सकती है क्योंकि सहजता वहां भी नहीं दिखाई देती है लेकिन स्थिति उतनी ख़राब नहीं दिखती जितनी महायुति के लिए दिखती है.