अमित बिश्नोई
देश के प्रधानमंत्री आजकल सबसे ज़्यादा समय कर्नाटक राज्य को दे रहे हैं. पिछले कुछ महीनों में वो आठ नौ दौरे कर चुके हैं। किसी राज्य के इतने दौरों से आप अंदाज़ा लगा ही सकते हैं कि वहां चुनाव होने वाले हैं. अभी कर्नाटक के जो दौरे हो रहे हैं वो किसी सरकारी आयोजन के तहत हो रहे हैं, कहीं किसी योजना का शिलान्यास करना है तो कहीं लोकार्पण। वैसे इन सरकारी आयोजनों का मकसद चुनावी ही होता है और सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी पर हमला करना भी. इन सरकारी मंचों का चुनावी मंच की तरह इस्तेमाल की परंपरा 2014 के बाद से शुरू हुई है, पहले भी होती थी लेकिन तब ऐसा नहीं था कि उसे परंपरा का नाम दिया जाय. वैसे तो आने वाले कुछ महीनों में देश के चार बड़े राज्यों में कर्नाटक , मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं लेकिन उनमें भाजपा के लिए कर्नाटक विशेष महत्त्व रखता है
कर्नाटक का विशेष महत्त्व भाजपा और प्रधामंत्री मोदी के लिए इसलिए भी है क्योंकि दक्षिण बेल्ट का यही एकमात्र राज्य है जहाँ पर भाजपा की पहचान है और भाजपा इस पहचान को खोने नहीं देना चाहती, यही वजह है कि पिछली बार कर्नाटक में चुनाव हारने और जेडीएस-कांग्रेस सरकार बनने के बाद मोदी-शाह-येदियुरप्पा की तिकड़ी ने तब तक चैन की सांस नहीं ली जबतक साम दाम दंड भेद अपनाकर सरकार को गिरा नहीं दिया और अपनी सरकार बना नहीं ली. उस दौरान भाजपा ने क्या क्या खेल किया राजनीति में दिलचस्पी लेने वाला हर व्यक्ति जनता है. यही खेल भाजपा ने मध्य प्रदेश में भी किया था और ज्योतिरादित्य सिंधिया को तोड़कर कमलनाथ सरकार को गिराकर शिवराज चौहान को फिर कुर्सी पर बिताया था.
कर्नाटक भाजपा के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हिंदी बेल्ट में चरम हासिल करने के बाद भाजपा की निगाह अब दक्षिण के राज्यों की तरफ है. उसे मालूम है कि हिंदी बेल्ट में इस बार नुक्सान पक्का है, पश्चिम में महाराष्ट्र में भी पिछले प्रदर्शन को इस बार दोहराना टेढ़ी खीर है. ऐसे में दक्षिण से ही उसे कुछ भरपाई की आशा है. कर्नाटक में तो उसे पिछली बार ही 28 में से 25 सीटों पर कामयाबी मिली थी, बावजूद इसके कि उस समय जेडीएस-कांग्रेस की राज्य में सरकार थी. इस बार राज्य सरकार के खिलाफ एक बड़ी नाराज़गी है. सत्ता जा भी सकती है लेकिन लोकसभा में मोदी मैजिक बरकरार रहेगा इस बार उसमें थोड़ा संशय है, कम से कम पिछली बार का इतिहास दोहराना तो थोड़ा मुश्किल है लेकिन कर्नाटक ही वो राज्य है जो भाजपा के लिए एक लांच पैड का काम कर सकता है, जहाँ तक दक्षिण का सवाल है.
दूसरी वजह यह भी है कि कर्नाटक की सत्ता में भाजपा कांग्रेस को लोकसभा चुनाव से पहले आने नहीं देना चाहती। भाजपा का मानना है कि कांग्रेस ने अगर कर्नाटक में सरकार बना ली तो पैसे टूटी कांग्रेस पार्टी को लोकसभा चुनाव के दौरान एक इन्वेस्टर मिल जायेगा। वैसे भी भाजपा नेता कांग्रेस पर आरोप लगाते हैं कि सत्ता के दौरान कांग्रेस पार्टी कर्नाटक का एक एटीएम के रूप में इस्तेमाल करती है. यही वजह है कि भाजपा कर्नाटक को इतना महत्त्वपूर्ण मानती है. अगर चारों राज्यों की तुलना करें तो कर्नाटक तीन राज्यों की तुलना में कहीं धनी राज्य कहा जा सकता है जो चुनाव के समय पैसे से काफी मदद कर सकता है.
दूसरी तरफ भाजपा के लिए मुश्किल यह है कि उसके सबसे अनुभवी और वरिष्ठ नेता येदियुरप्पा ने चुनावी राजनीती यानि चुनाव लड़ने से इंकार करते हुए सन्यास की घोषणा कर दी है. भाजपा के लिए यह एक बहुत बड़ा झटका है. हालाँकि भाजपा के चाणक्य अमित शाह हों या प्रधानमंत्री मोदी, कर्नाटक में जाकर ये दिखाने की कोशिश ज़रूर करते हैं कि येदियुरप्पा मन से उनके साथ हैं, भाजपा के इन दोनों शीर्ष नेताओं के मंचों पर येदियुरप्पा के हाथ में हाथ लेकर तस्वीरों का होना अनिवार्य हो गया है, येदियुरप्पा भले ही कहते हों कि वो मन से मोदी और भाजपा के साथ हैं लेकिन याद रखना चाहिए कि ये वही येदियुरप्पा हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री की कुर्सी वापस पाने के लिए कुमारस्वामी सरकार को एक दिन भी चैन से नहीं रहने दिया और सरकार गिराकर उनसे कुर्सी वापस लेकर ही माने। ऐसे येदियुरप्पा का चुनावी राजनीती से अचानक संन्यास लेना हज़म होने वाली बात नहीं। भाजपा को भी इस बात का एहसास है इसलिए वो चुनावी अभियान में येदियुरप्पा को ही आगे कर रही है. अब देखना यह है कि कर्नाटक को बचाकर प्रधानमंत्री मोदी अपनी दक्षिण की सियासत को कितना आगे ले सकते हैं.