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हरियाणा चुनाव: कांग्रेस की जीत में शैलजा न बन जांय बाधक

आर्टिकल/इंटरव्यूहरियाणा चुनाव: कांग्रेस की जीत में शैलजा न बन जांय बाधक

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अमित बिश्नोई
वैसे तो हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के पक्ष में हवा होने की बात कही जा रही है, यहाँ तक कि भाजपा भी ये मानकर चल रही है कि उसका लगातार तीसरी बार सत्ता में आना मुश्किल है. लेकिन उसे उम्मीद की एक हलकी सी किरन भी दिख रही है और वो किरण हैं कांग्रेस नेता कुमारी शैलजा जो दलित वर्ग से आती हैं और हरियाणा की राजनीती में उनका प्रभाव भी है, फिलहाल पिछले एक हफ्ते से वो चुनाव प्रचार से दूर हैं और यही दूरी भाजपा का हौसला बढ़ाये हुए है और उम्मीदों को कायम रखे हुए है. उसे लगता है कि उसकी तीसरी बार सत्ता में वापसी कांग्रेस पार्टी ही करा सकती है. वो फिर 2019 जैसा चमत्कार करना चाहती है जहाँ कांग्रेस पार्टी की सर्वाधिक सीटें होने के बावजूद भाजपा ने लगातार दूसरी बार सरकार बना ली थी और तब भी कांग्रेस की अंतरकलह की बदौलत ही हुआ था और तब भी हालात कांग्रेस के पक्ष में थे और तब भी शैलजा गुट ने हुड्डा गुट की अंदर से जड़ें काटी थीं. इस बार भी कुछ वैसे ही हालात बनते दिखाई दे रहे हैं जो पार्टी को कोई बड़ा झटका भी दे सकते हैं और उसकी बनी बनाई बाज़ी बिगड़ भी सकती है.

दरअसल कुमारी शैलजा ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश कर कांग्रेस पार्टी को परेशानी में डाल दिया है. कुमारी शैलजा का हरियाणा के दलित वोट बैंक में खासा असर है और हुड्डा गुट से उनका राजनीतिक बैर भी जगज़ाहिर है. शैलजा ने एक कार्यक्रम में ये सवाल उठाकर कि एक दलित हरियाणा का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकता? एक नई बहस छेड़ दी है और भाजपा भी इस बहस में कूद पड़ी है, भाजपा इस वक्त कुमारी शैलजा के साथ खड़ी है, पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर खुलकर शैलजा का समर्थन कर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं, खट्टर ने कहा कि एक दलित बेटी का कांग्रेस पार्टी में अपमान हो रहा है और इसी वजह से उसने चुनाव से खुद को अलग कर लिया है. हरियाणा में कांग्रेस पार्टी के पक्ष में जाट और दलित खड़े हैं और ये कॉम्बिनेशन हरियाणा की राजनीती में सत्ता का फैसला भी करता है. भाजपा कुमारी शैलजा के साथ खड़ी होकर ये दिखाना चाहती है कि वो दलित हितैषी है. खट्टर का शैलजा के लिए सहानुभूति वाला बयान इसी लिए आया है. कुछ ओपिनियन पोल्स के मुताबिक हरियाणा में इस बार कांग्रेस और भाजपा में अंतर काफी दिख रहा है, दलित वोटों में सेंध लगाकर वो इस अंतर को कम करके 2019 जैसी स्थिति बनाना चाहती है जहाँ उसे बहुमत भले ही न मिले मगर जोड़तोड़ का अवसर ज़रूर मिल जाय ताकि वो सरकार बनाने में सक्षम हो सके.

जहाँ तक कुमारी शैलजा की बात है तो अब ये बिलकुल स्पष्ट हो चूका है कि वो नहीं चाहती कि भूपिंदर सिंह हुड्डा या फिर उनका बेटा दीपेंदर सिंह हुड्डा मुख्यमंत्री बने, इसीलिए उन्होंने सीएम पद के लिए अपना नाम भी उछाल दिया है। शैलजा को सुरजेवाला का पूरा समर्थन प्राप्त है क्योंकि वो भी हुड्डा ग्रुप से अलग माने जाते हैं. सुरजेवाला पार्टी आलाकमान के करीबी समझे जाते हैं, राहुल के करीबी दीपेंद्र हुड्डा भी हैं. आलाकमान अभी तक इस आंतरिक झगडे में खुलकर सामने नहीं आया है लेकिन बज़ाहिर यही नज़र आ रहा है कि उसका नरम रुख हुड्डा गुट के साथ है. आलाकमान के इसी रुख की वजह से कुमारी शैलजा ये कहते हुए चुनावी अभियान से अलग हो गयी हैं कि फैसला आलाकमान को करना है न कि भूपिंदर सिंह हुड्डा को. शैलजा की नाराज़गी टिकट बटवारे के समय भी थी क्योंकि उनके गुट के नेताओं को कम सीटों पर एडजस्ट किया गया और फिर उनमें से कई सीटों पर हुड्डा फैमिली के करीबी लोग निर्दल के रूप में खड़े हो गए ताकि शैलजा गुट के विधायक ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल न कर सकें या संख्या बल के सहारे कुमारी शैलजा अपनी दावेदारी मज़बूत न कर सकें और यही बातें कांग्रेस पार्टी के बहुत बड़ी समस्या बन सकती हैं. हुड्डा को इस समय ऐसा लग रहा है कि हरियाणा में कांग्रेस की हवा बह रही है और अगर पार्टी में विरोधी गुट की कुछ सीटों पर पार्टी हार भी जाय तो कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा लेकिन ये नहीं भूलना चाहिए कि यही अतिआत्मविश्वास पिछले विधानसभा चुनावों में भूपिंदर सिंह हुड्डा को ले डूबा था और शर्तिया तौर पर सरकार बनाने वाली कांग्रेस पार्टी को अंत में झटका खाना पड़ा था और हुड्डा के मुंह से निवाला छिन गया था.

कुमारी शैलजा ने पार्टी आला कमान के सामने हुड्डा गुट द्वारा उनके समर्थकों के खिलाफ डमी उम्मीदवार खड़ा करने की बात को एक मुद्दा बनाकर पेश किया है क्योंकि नामांकन वापसी के बाद भी हुड्डा के करीबी माने जाने वाले वो सभी निर्दल प्रत्याशी मैदान में डटे हुए हैं, उन्होंने नामांकन वापस नहीं लिया है. इस मुद्दे को हल करने में दिल्ली की देरी को देखते हुए खुद को चुनाव प्रचार से अलग कर लिया है और एक हफ्ते से वो चुनावी सभा में नहीं गयी हैं. कहा जा रहा है कि टिकट बंटवारे में उपेक्षा के बावजूद कुमारी शैलजा ने समझौता कर लिया था लेकिन हुड्डा गुट की तरफ से निर्दल उम्मीदवार उतारे जाने के बाद कुमारी शैलजा ने अब दूसरा अख्तियार किया है. कुमारी शैलजा का ये रूप कांग्रेस के लिए काफी भारी पड़ सकता है. देखने वाली बात ये होगी कि दिल्ली इस मामले में कितनी जल्दी और किस तरह हस्तक्षेप करती है. कुमारी शैलजा हों या सुरजेवाला या हुड्डा बाप बेटे, दोनों ही अपने आपको राहुल का करीबी बताते हैं. अब देखना होगा कि अपने दोनों समर्थक गुटों में फंसे पेंच को राहुल गाँधी किस तरह छुड़ाते हैं. राहुल गाँधी के लिए भी ये एक कड़ी परीक्षा है लेकिन इसका हल उन्हें जल्दी से जल्दी निकालना पड़ेगा वरना कहीं देर न हो जाय वाली बात न हो जाय. कांग्रेस पार्टी अपने पक्ष में बनी हवा को महाराष्ट्र और झारखण्ड के होने वाले चुनावों के लिए बरकरार रखना ज़रूर चाहेगी और इसके लिए हरियाणा में जीत उसके लिए एक बूस्टर का काम करेगी। इसलिए हरियाणा अगर जीतना है तो कुमारी शैलजा को शांत रखना बहुत ज़रूरी है वरना भाजपा तो अपने अभियान में जुट ही गयी है और कांग्रेस के खिलाफ दलित विरोधी बनाने का काम शुरू कर दिया है.

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