नयी दिल्ली: केन्द्रीय शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने अंग्रेज विचारक थॉमस बैबिंगटन मैकाले की शिक्षा नीति को देश में युवाओं को सांस्कृतिक जड़ों से काटे जाने तथा उनमें अनुशासनहीनता का जिम्मेदार ठहराया है। डॉ. पोखरियाल रविवार को यहां इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सभागार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, प्रख्यात समाजधर्मी एवं चिंतक इंद्रेश कुमार की सद्यःप्रकाशित मर्मस्पर्शी पुस्तक ‘छुआछूत मुक्त समरस भारत’ के लोकार्पण के समारोह को संबोधित कर रहे थे।
प्रभात प्रकाशन के सौजन्य से आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष राम बहादुर राय ने की। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि के रूप में केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन राज्यमंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से भाग लिया। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सचिव सदस्य डॉ. सच्चिदानंद जोशी और केन्द्र में डीन एवं विभागाध्यक्ष, कला निधि प्रो. रमेश चंद्र गौड़ भी उपस्थित थे।
केंद्रीय शिक्षा मंत्री ने पुस्तक को शोधार्थियों के लिए अनिवार्य रूप से पठनीय बताते हुए कहा कि कि यूनेस्को में जब उनसे युवा पीढ़ी की अनुशासनहीनता का कारण पूछा गया तो उन्होंने मैकाले की दोषावह शिक्षा-नीति के द्वारा शिक्षार्थियों की सांस्कृतिक जड़ों को काटे जाने को इसका मूलभूत कारण बताया था। उन्होंने कहा कि संस्कृत को विश्व आज महज एक भाषा नहीं, बल्कि समस्त ज्ञान-विज्ञान का स्रोत स्वीकारता है, अतः अब इससे हमें वंचित नहीं रहना चाहिए।
श्री इंद्रेश कुमार ने अपने प्रेरक संबोधन में कहा कि सनातन संस्कृति में कहीं भी जन्मना या कर्मणा जाति-व्यवस्था नाम की चीज नहीं थी लेकिन कालांतर में उपजी इस विकृति ने देश के 44 टुकड़े कराये और 48 करोड़ लोग विधर्मी हो गये।
उन्होंने कहा कि जब-जब हम अधिकारों की बात करते हैं, तब-तब एक खूनी संघर्ष जन्म लेता है तथा इतिहास रक्तरंजित हो जाता है। और जब-जब भी हम कर्तव्यों की ओर उन्मुख होकर त्याग के मार्ग का अनुशीलन करते हैं, तब-तब समाज में राम के चरित्र की स्थापना होती है तथा राम-राज्य आता है। भगवान् राम का समग्र जीवन उनके कार्यों से निर्मित है, इसलिए हम उन्हें ईश्वर समझते हैं
उन्होंने कहा, “हमारी सनातन संस्कृति में कहीं भी जाति-व्यवस्था नाम की चीज नहीं थी, कर्मणा जाति-व्यवस्था भी असत्य बात है। हाँ, कर्मणा समूह अवश्य हुआ करते थे, जैसे—तपस्वी एवं वैज्ञानिक समूह, जो ऋषि-मुनि कहलाते थे। वीरोचित कर्म करनेवालों के समूह योद्धा कहलाते थे। सेवा-कर्म करनेवालों के समूह कार्मिक कहलाते थे। कालांतर में यह भ्रांति हमारे मस्तिष्क में मल की तरह बैठ गई और हमने तरह-तरह के उपमानों को गढ़कर अपने आगे-पीछे तरह-तरह की उपाधियाँ लगाकर जन्मना जातियों का तुच्छ निर्माण अपने ही हाथों से किया है।”