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फ्रीबीज़ के जाल में उलझा दिल्ली का वोटर

आर्टिकल/इंटरव्यूफ्रीबीज़ के जाल में उलझा दिल्ली का वोटर

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तौक़ीर सिद्दीक़ी
गणतंत्र दिवस की तैयारियों के बीच दिल्ली में चुनाव प्रचार अपने शबाब पर है. राजनीतिक पार्टियों के बीच घोषणाओं की एक होड़ मची हुई है. घोषणाएं मुफ्त योजनाओं से वोटरों को रिझाने की. इन घोषणाओं की बाढ़ की साज़िश से वोटरों को गुमराह करने की कोशिश हो रही है. वो अपने वोट की कीमत देख रहा है कि कहाँ से उसे उसके वोट की ज़्यादा कीमत मिल रही है. वो तुलना कर रहा है कि कौन सी पार्टी उसे नकद ज़्यादा दे रही है, कहाँ उसे वस्तुएं मिल रही हैं और कहाँ उसे सेवाओं के रूप में आकर्षक उपहार बेहतर मिल सकते हैं। एक तरह से कह सकते हैं पार्टियों के चुनाव घोषणापत्र अब वचन पत्र हो गए हैं, न कि भविष्य की योजनाओं और नीतियों के बयान। यही वजह है कि यह वचन पत्र भी अब कई हिस्सों में सामने आते हैं क्योंकि विरोधी के हर वचन के साथ उसे भी उसकी काट में एक नया वचन देना पड़ता है और यह सिलसिला मतदान के अंतिम दिनों तक चलता रहता है क्योंकि वचन देने पर किसी तरह की कोई रोक नहीं होती। अन्य पार्टियों द्वारा किए गए प्रस्तावों को ध्यान में रखते हुए पूरक प्रस्ताव दिए जाते हैं। आम आदमी पार्टी जिसने एक दशक पहले मुफ़्त बिजली और पानी के वादे के साथ अपने मौजूदा स्वरूप में इस चलन की शुरुआत की थी ने धीरे-धीरे अपने पैकेज को और रिफाइन किया है।

इसमें इस बार बेरोज़गार महिलाओं को 2,100 रुपये मासिक भुगतान, हिंदू और सिख पुजारियों को 18,000 रुपये मासिक भुगतान, छात्रों की विदेश में शिक्षा के लिए वित्तपोषण और अन्य लाभ शामिल हैं। एक अतिरिक्त पैकेज की भी घोषणा की है। इसी तरह भाजपा के वादों में गरीब महिलाओं को 2,500 रुपये मासिक भुगतान, गर्भवती महिलाओं को 21,000 रुपये मासिक भुगतान, बुजुर्गों के लिए मासिक पेंशन और अन्य लाभ शामिल हैं। कांग्रेस ने भी प्रतिस्पर्धी प्रस्ताव दिए हैं। प्रेशर कुकर, कूपन और अन्य उपहारों के वादे पहले भी चुनाव प्रचार का हिस्सा रहे हैं। चुनाव से एक दिन पहले पैसे बांटने की परंपरा भी रही है। लेकिन मौजूदा व्यवस्था ज़्यादा रिफाइंड है; लाभ का वितरण अब कानूनी और अधिक व्यवस्थित है। हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा और कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की जीत का बहुत कुछ पार्टियों द्वारा पेश किए गए रियायतों और योजनाओं से लेना-देना है। सत्तारूढ़ पार्टी को विपक्ष पर बढ़त मिलती है क्योंकि वह चुनाव से पहले ही रियायतें बांटना शुरू कर देती है। महाराष्ट्र इसका ताजा उदाहरण है। रियायतों को अब कल्याणकारी योजनाओं के रूप में पेश किया जाता है। ऐसी योजनाएं जो लोगों के हाथ में पैसा देती हैं, खासकर समाज के कमजोर वर्गों के लोगों के हाथ में, उनका सामाजिक और आर्थिक मूल्य होता है। लेकिन जब वे आवश्यक जांच के बिना प्रतिस्पर्धी दान बन जाते हैं, तो वे निष्पक्ष प्रथाओं की सीमाओं की परीक्षा लेते हैं, चुनावी नैतिकता का उल्लंघन करते हैं और लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाते हैं।

चुनाव से पहले और बाद में व्यक्तियों या समूहों को दिए जाने वाले पैसे और लाभ सरकारी खजाने से होते हैं। यहां, करों और अन्य योगदानों से जनता के स्वामित्व और निर्माण किए गए खजाने का इस्तेमाल पार्टियां अपने राजनीतिक लाभ के लिए करती हैं। वे इन रियायतों को प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों की मुहर के साथ लोगों को दिए जाने वाले उपहार के रूप में भी पेश करते हैं, जिससे पूरी प्रक्रिया व्यक्तिगत हो जाती है। जब उदारता बड़े पैमाने पर कुछ वर्गों तक बढ़ाई जाती है, तो इससे बुनियादी ढांचे के निर्माण, सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं के निर्माण और सभी नागरिकों को लाभ पहुंचाने वाले कार्यक्रमों को लागू करने के लिए उपलब्ध धन समाप्त हो जाता है। कोई भी पार्टी लोगों को यह नहीं बताती कि इन रियायतों को कैसे वित्तपोषित किया जाता है। कई राज्य सरकारों द्वारा पेश की जा रही चुनाव-प्रेरित योजनाओं के कारण वित्तीय संकट का सामना कर रहे हैं, और यह उन लोगों के लिए एक सबक होना चाहिए जो चुनावी रणनीति के हिस्से के रूप में रियायतें पेश कर रहे हैं।

यहाँ पर एक बड़ा सवाल यह खड़ा होता है कि इन वचनों और वादों पर लोग ऐतबार कैसे करते हैं क्योंकि इसमें भी बड़ा विरोधाभास है. सत्तारूढ़ पार्टी जो पिछले पांच दस बरस से काम कर रही होती है, जब इस तरह की घोषणाएं करती है तो कई बार उसके वादों और वचनों पर जनता को भरोसा हो जाता है और वह इसलिए कि उसमें से कुछ वो पहले डिलीवर कर रही होती है लेकिन कभी कभी उसे उसके वचनों पर भरोसा नहीं होता। राजस्थान विधानसभा और मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव इसकी सबसे बेहतर मिसाल हैं. उसे अशोक गहलोत सरकार के वचनों पर भरोसा नहीं हुआ हालाँकि वो पहले से कई शानदार जनकल्याण की योजनाएं डेलिवर कर रहे थे जिनका जनता फायदा उठा रही थी और यह योजनाएं चुनाव के समय नहीं शुरू की गयी थीं, पिछले दो साल से चल रही थी. वहीँ मध्य प्रदेश में ठीक चुनाव से पहले लाड़ली बहन योजना पर लोगों ने भरोसा कर लिया और भाजपा को बम्पर बहुमत से जीतकर एकबार फिर सत्ता सौंप दी. छत्तीसगढ़ की बात आप कर सकते हैं. कांग्रेस पार्टी ने तो पूरा चुनाव ही छत्तीसगढ़ मॉडल लोगों के सामने पेश करके लड़ा लेकिन बघेल सरकार की बहुत सी कल्याणकारी योजनाओं की डिलीवरी के बावजूद उसे भाजपा के संकल्प पसंद आये.

महाराष्ट्र को भी इस सूची में शामिल कर सकते हैं, वहां की महिलाओं ने चुनाव से ठीक पहले शुरू की गयी नकद ट्रांसफर योजना पर भरोसा किया और सरकार के समर्थन में ज़बरदस्त वोट किया। अब दिल्ली चुनाव की बात करें तो आम आदमी पार्टी की सरकार पिछले दस वर्षों मुफ्त बिजली, पानी और मोहल्ला क्लिनिक जैसी सुविधाएँ लोगों को दे रही है और भविष्य में महिलाओं को नकद मासिक भुगतान, पुजारियों-ग्रंथियों को 18,000 रुपये मासिक भुगतान, छात्रों की विदेश में शिक्षा के लिए वित्तपोषण और अन्य लाभ देने की बात कर रही है. तो क्या दिल्ली की जनता आम आदमी पार्टी के वचनों पर भरोसा करेगी, उस सरकार पर भरोसा करेगी जो पहले से डिलीवर करती आ रही है या फिर राजस्थान की गेहलोत और छत्तीसगढ़ की बघेल सरकार की तरह डिलीवरी से ज़्यादा वादों पर भरोसा करेगी। यह एक ऐसा सवाल है जिसका कोई सटीक उत्तर किसी के पास नहीं है, यह अलग बात है कि नतीजों के बाद तो कोई न कोई वजह निकाल ही ली जाती है. फिलहाल फ्रीबीज़ के जाल में दिल्ली का वोटर उलझा हुआ है.

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