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उपचुनावों ने बढ़ाया योगी जी का क़द

आर्टिकल/इंटरव्यूउपचुनावों ने बढ़ाया योगी जी का क़द

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अमित बिश्नोई
महाराष्ट्र और झारखण्ड विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं, दोनों राज्यों में मौजूदा सरकारों ने पहले से भी बेहतर बहुमत से अपनी अपनी सरकारों को बरकरार रखा है, महाराष्ट्र में सत्ताधारी संगठन ने विपक्षी गठबंधन का एक तरह से पूरी तरह सफाया कर दिया है. इन दोनों चुनावों के साथ ही उत्तर प्रदेश विधानसभा की 9 रिक्त सीटों पर भी चुनाव हुआ और इन उपचुनावों पर भी पूरे देश की नज़रे थीं क्योंकि लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ वाले राज्य में भाजपा और पीएम मोदी जी को एक तरह से सदमा मिला था और मोदी जी को पहली बार सहयोगी दलों पर निर्भर होना पड़ा था, ऐसे में योगी आदित्यनाथ पर पार्टी के अंदर ही बड़ी उँगलियाँ उठने लगी थीं, इसलिए ये उपचुनाव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए बहुत बड़ी परीक्षा भी थी और प्रतिष्ठा का सवाल भी और जो नतीजे आये उससे स्पष्ट हो गया कि योगी आदित्यनाथ का जलवा कायम है. 9 में से 7 सीटों पर भाजपा और सहयोगी रालोद को कामयाबी हासिल हुई. इन उपचुनावों के नतीजों ने ये भी साबित हुआ कि अखिलेश का PDA फार्मूला इसबार काम नहीं आया और योगी आदित्यनाथ का बंटने और कटने वाला नारा काम कर गया.

अखिलेश यादव के लिए उपचुनाव के नतीजे किसी झटके कम नहीं हैं, ये नतीजे उनकी पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) जाति-आधारित रणनीति के लिए भी एक बड़ा झटका है जिसने लोकसभा चुनाव में उन्हें इतिहास की सबसे बड़ी कामयाबी दिलाई और उसी कामयाबी के घोड़े पर सवार होकर वो विधानसभा चुनावों के लिए मंच तैयार कर रहे थे. लोकसभा चुनावों में कामयाबी से अखिलेश कहीं न कहीं ओवर कॉन्फिडेन्स का शिकार भी हुए और जिसकी वजह से इन उपचुनावों सपा को कांग्रेस का सहयोग भी नहीं मिल सका क्योंकि अखिलेश के बर्ताव की वजह से इन उपचुनावों में कांग्रेस से कोई सम्मानजनक समझौता भी नहीं हो पाया और कांग्रेस ने उपचुनावों से हटने का फैसला किया जिसका मतलब सपा को अकेले ही सारा ज़ोर लगाना पड़ा. उसे उपचुनावों में कांग्रेस का वो साथ नहीं मिला जो लोकसभा चुनावों में दिखा था. सपा सिर्फ करहल और सीसामऊ के अपने गढ़ ही बचा सकी, जिन पर पार्टी ने तीन दशकों से अधिक समय तक कब्जा किया है। सपा को सबसे बड़ा झटका के लिए सबसे बड़ा झटका मुरादाबाद की कुंदरकी सीट पर मिला जहाँ 65% मुस्लिम मतदाता हैं. भाजपा के रामवीर सिंह ने सपा के मोहम्मद रिजवान को 96,000 से अधिक मतों के भारी अंतर से हराया।

इन उपचुनावों के नतीजों ने मतदान के पैटर्न में महत्वपूर्ण बदलाव को उजागर किया है, खासकर दलित मतदाताओं के बीच। इस साल की शुरुआत में हुए लोकसभा चुनावों के विपरीत, दलितों ने समाजवादी पार्टी के साथ बहुत ज़्यादा नहीं दिया। समुदाय विभाजित दिखाई दिया, जिसमें कुछ वोट मायावती की बहुजन समाज पार्टी को गए, लेकिन एक बड़ी संख्या भारतीय जनता पार्टी की ओर झुकी। इन उपचुनावों में कांग्रेस की अनुपस्थिति ने भारत गठबंधन को और नुकसान पहुंचाया, क्योंकि पारंपरिक दलित मतदाताओं ने सपा उम्मीदवारों का पूरे दिल से समर्थन करने से परहेज किया। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की तरफ दलित समुदाय के झुकाव की वजह से सपा उम्मीदवारों को काफी फायदा मिला था जो इस बार कांग्रेस की गैरमौजूदगी की वजह से बसपा और भाजपा में बंट गया, सच बात तो ये है कि दलित समुदाय सपा को दिल से कभी अपना ही नहीं सकता।

लोकसभा चुनावों के दौरान सपा और कांग्रेस के बीच जो सौहार्द देखा गया था, वह इस बार गायब था। सीट बंटवारे को लेकर मतभेदों के कारण कांग्रेस उपचुनाव से बाहर हो गई। पार्टी ने चार सीटों की मांग की थी, लेकिन सपा ने उसे केवल दो सीटें देने की पेशकश की। नतीजतन, कांग्रेस नेताओं ने खुद को अभियान से अलग कर लिया। भारत गठबंधन के हिस्से के रूप में सपा उम्मीदवारों के लिए शुरू में समर्थन की घोषणा करने के बावजूद, न तो राहुल गांधी और न ही प्रियंका गांधी वाड्रा ने उत्तर प्रदेश में प्रचार किया। केंद्रीय और राज्य नेतृत्व दोनों की इस तरह की भागीदारी की कमी ने गठबंधन की संभावनाओं को और कमजोर कर दिया। मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर सपा का हारना पार्टी के खतरे की घंटी बजने से कम नहीं है. वैसे कहा जा रहा है कि मुस्लिम वोटरों को वोट करने ही नहीं दिया गया लेकिन जब हम कुंदरकी के नतीजे को देखते हैं तो वजह स्पष्ट हो जाती है, मुस्लिम मतदाओं को वोट से रोका गया सिर्फ यही वजह नहीं कही जा सकती, यहाँ पर 11 मुस्लिम उम्मीदवारों के बीच सिर्फ एक ही हिन्दू उम्मीदवार था और वो थे भाजपा के रामवीर सिंह जिन्हें 170371 मत मिले जबकि उनके निकटतम सपा के मोहम्मद रिज़वान को मात्र 25580 वोट हासिल हुए. देखा जाय तो बाकी सारे मुस्लिम उम्मीदवारों के वोट एकसाथ कर दिए जांय तब भी रामवीर को चुनौती नहीं मिल रही थी, ऐसे में कहा जा सकता है कि मुस्लिम समुदाय ने भी रामवीर को बड़ी संख्या में वोट दिया और सपा के लिए चिंता की सबसे बड़ी बात यही है.

इस उपचुनाव में जीत भाजपा के लिए एक इम्पोर्टेन्ट बूस्ट अप है, क्योंकि इस साल की शुरुआत में हुए आम चुनावों में उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा था, जहाँ उत्तर प्रदेश में एनडीए की सीटें 2019 में 66 सीटों से घटकर 36 रह गई थीं। योगी आदित्यनाथ के लिए, यह जीत 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले उनकी राजनीतिक रणनीति और नेतृत्व की पुष्टि करती है। उपचुनाव के नतीजे उत्तर प्रदेश में विकसित हो रहे राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक संकेत के रूप में काम करते हैं। जहाँ भाजपा ने अपना प्रभुत्व मजबूत किया है, वहीं सपा को अपने मतदाता आधार को मजबूत करने और अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए एक कठिन लड़ाई का सामना करना पड़ रहा है। वैसे तो उपचुनावों में हमेशा सत्ताधारी पार्टी को फायदा मिलता है, इस बार भी वैसा ही हुआ. सिर्फ यूपी में नहीं अन्य राज्यों में हुए उपचुनाव में यही ट्रेंड देखा गया. असम, बिहार, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में तो शत प्रतिशत नतीजे सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन के पक्ष में गए हैं. उस हिसाब से देखा जाय तो सपा का प्रदर्शन शायद उतना खराब न दिखे लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इन उपचुनावों से योगी आदित्यनाथ ने अपने विरोधियों को खामोश ज़रूर कर दिया है. महाराष्ट्र के नतीजों से भी योगी आदित्यनाथ का कद बढ़ा है क्योंकि सहयोगी दलों के विरोध के बावजूद उनके बंटने और कटने के नारे ने ध्रूवीकरण करने में कामयाबी ज़रूर हासिल की.

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