अमित बिश्नोई
बुज़ुर्गों से सुना करते थे कि कुछ लोग दुनिया में ऐसे होते हैं जिन्हे कफ़न चोर कहा जाता है क्योंकि वह लोग क़ब्र में दफ़्न की लाशों का कफ़न चुराते थे. यह लोग रात के अँधेरे में यह काम करते थे. मगर अब नया ज़माना है, नया दस्तूर है और नयी सरकार है. जो काम रात के अँधेरे में होता था वह अब दिन के उजाले में हो रहा है, कैमरे के सामने हो रहा है.
सचमुच ज़माना बदल गया है, सरकार इतनी संवेदनहीन हो गयी है कि उसे अपनी इमेज बिल्डिंग के आगे कुछ भी दिखाई नहीं देता। अपनी छवि सुधारने के लिए उसने मानवता को पूरी तरह दरकिनार कर दिया। पहले तो कोरोना संक्रमित इलाज की कमी, ऑक्सीजन की कमी,अस्पतालों में बेड की कमी से तड़प तड़प कर मरे. फिर इन बदनसीबों को शमशानों में भी जगह न मिली। अंतिम संस्कार इतना मंहगा हो गया कि गरीब की हैसियत से बाहर। दवाओं की कालाबाज़ारी के साथ चिता के लकड़ी की कालाबाज़ारी, मगर सरकार खामोश! बिलकुल उन तीन बंदरों की तरह कि न सुनेंगे, न देखेंगे और न ही बोलेंगे।ऐसा महसूस होता था जैसे सरकार नदारद है जनता पर दुखों का पहाड़ टूटा था, घर के घर उजड़ गए. कितने ही घरों में कोई क्रिया क्रम करने वाला तक नहीं बचा. एक तो अकाल मृत्यु से दुनिया से जाते लोग उसपर लाशों की ऐसी दुर्गति कि पत्थर से पत्थर दिल भी पिघल जाय.
ऐसा ही एक ह्रदय विदारक दृश्य आज लोगों ने जब सोशल मीडिया पर देखा तो उनके होश उड़ गए. प्रयागराज में गंगा किनारे सरकारी अमले की देखरेख में शवों का जो अनादर हो रहा था उससे लोगों की आत्मा सिहर उठी. वायरल वीडियो में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि कैसे गंगा के किनारे दफ़्न हजारों गरीब हिंदुओं की लाशों पर उढ़ाई गयी रामनामी चादरों को घसीटा जा रहा है, कैसे अपने परिजन की पहचान के लिए बनाये गए लकड़ी के घेरों को हटाया जा रहा है.
यह सब क्यों? ऐसा करके क्या साबित करने की कोशिश हो रही है, क्या बात छुपाने का प्रयास हो रहा है? यहाँ तो वह लोग रेत में दबे हुए हैं जो सरकारी आंकड़ा भी नहीं बन सके. सरकार इनकी पहचान क्यों मिटाना चाहती है, यह लोग अब किसी का क्या बिगाड़ेंगे। बिगड़ा तो इनका परिवार है. पता नहीं यहाँ जो दफन है वह किसी परिवार का अकेला कमाऊ पूत रहा हो. बहुत दिल दुःख रहा होगा इन मृत आत्माओं का.
सवाल तो यह भी है कि अब छुपाने से क्या फायदा, यह सबकुछ तो तस्वीरों के रूप में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वायरल हो ही चूका है और सरकार की पहचान को स्थापित कर चूका है. जिन लोगों को जीते जी इलाज नहीं मिला, मरने के बाद सम्मान से अंतिम संस्कार नहीं हो सका अब रेत बराबर करके उनकी पहचान छुपाकर अपनी छवि चमकाने का पाप किया जा रहा है, ना कफन की चादर रहेगी ना पहचान।
अपनी नाकामी को कहाँ तक छुपाएंगे आप, कभी संक्रमितों और मृतकों के आंकड़े दबाकर, कभी टेस्टिंग के आंकड़ों में हेराफेरी कर या लाशों पर से रामनामी चादरें चुराकर। सवालों से बच नहीं सकते आप. लोग तो पूछेंगे ही कि हमारे अपनों के कफ़न कहाँ गए, पावन गंगा किनारे की ऐसी सफाई तो माँ गंगा को भी नहीं पसंद आयी होगी।