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प्रधानमंत्री जी, सचिन जी! अब बधाई पाने के प्रयास कीजिये

आर्टिकल/इंटरव्यूप्रधानमंत्री जी, सचिन जी! अब बधाई पाने के प्रयास कीजिये

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अमित बिश्नोई
अर्जेंटीना ने 36 साल बाद तीसरी बार दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल फ़ुटबाल का विश्व कप जीत लिया। कप्तान लियोनेल मेस्सी का विदाई बेला में अधूरा सपना भी पूरा हो गया, वो स्टार से महान खिलाडियों की सूची में शामिल हो गए. विश्व चैम्पियन बनने पर पूरी दुनिया से अर्जेंटीना और मेसी को बधाइयों का ताँता लग गया. भारत से भी ढेरों बधाइयाँ भेजी गयीं, प्रधानमंत्री जी ने भी बधाई भेजी और बधाई सन्देश के साथ यह भी लिखा कि ये फाइनल बरसों तक याद रखा जायेगा, मतलब प्रधानमंत्री मोदी भी फ़ुटबाल प्रेमी हैं और उन्होंने पूरा मैच भी देखा, तभी तो बरसों याद रखने वाली बात लिखी है। प्रधानमंत्री मोदी की तरह देश की अन्य बहुत सी खेल विभूतियों ने भी मेसी की शान में कसीदे पढ़े जिनमें क्रिकेट के भगवान् सचिन तेंदुलकर भी शामिल थे, बॉलीवुड के बादशाह कहे जाने वाले शाहरुख़ खान भी. इसके अलावा बहुत से नाम हैं जिन्होंने फीफा विश्व कप पर अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं. इसके अलावा हम और कर भी क्या सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी हों, क्रिकेट के भगवान् सचिन हों या फिर बादशाह शाहरुख़ या और कोई भी, हम सिर्फ दूसरों को बधाई ही दे सकते हैं क्योंकि हमें मालूम है कि उस लेवल के करीब छोड़िये दूर दूर तक भी नहीं पहुँच सकते और न अभी हैं. अभी हम फीफा रैंकिंग में किस जगह हैं बताते हुए भी शर्म आती है. इसलिए हम सिर्फ दूसरों को खेलते और जीतते देखकर ही खुश हो लेते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि कोई अर्जेंटीना की जीत पर खुश हो रहा है तो कोई फ्रांस की हार पर रो रहा है. मतलब दूसरों के लिए ही हंसना और रोना जारी है.

ठीक है, किसी को जीत की बधाई देना अच्छी बात होती है लेकिन क्या ये और अच्छी बात नहीं होती कि बधाई पाने वाला भारत होता या कोई भारतीय . हर चार साल बाद फ़ुटबाल का विश्व कप आता है और साथ में एक सवाल भी लाता है कि 130 करोड़ से ज़्यादा की आबादी वाला भारत इसमें कप दिखेगा। हर चार साल बाद मोर नाचता है और नाचते नाचते उसकी निगाह अपने पैरों पर पड़ती है और उसका सारा नशा हिरन हो जाता है, हम भारतियों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है, खूब खुश होते हैं, टीमों को आपसे में बाँट लेते हैं, खिलाडियों को भी बाँट लेते हैं. मगर कभी कोई भारत को अपनी टीम में नहीं रख पाता, एक हूक सी दिल में उठी है, एक दर्द जिगर में होता है लेकिन फिर चाल साल के लिए सबकुछ भुला दिया जाता है.

हमने भी बधाई की औपचारिकता पूरी कर दी अब चलते हैं फिर एकबार फिर देश की राजनीति पर चर्चा करने। अगले चुनाव की तैयारी करने, एक दुसरे की पार्टियों को नीचा दिखाने। कभी यह कोशिश नहीं करते कि हम भी फीफा विश्व कप में खेलने की तैयारी करें. अरे जो खेलते हैं वो क्या इंसान नहीं होते, और इंसान तो हम भी हैं तो हम क्यों नहीं फीफा वर्ल्ड कप में दिखते। कौन है इसका ज़िम्मेदार? सरकार, खेल संगठन या फिर जनता या फिर वो लोग जिन्हें हमने बहुत कुछ दिया, पैसा भी और प्यार भी. क्यों सभी व्यावसायिकता के पीछे भागे जा रहे हैं, क्यों लोगों को प्रतिष्ठा की परवाह नहीं है? प्रधानमंत्री जी ने फाइनल मैच के रोमांच की बात कही, काश वो सिर्फ इतना भर अपने ट्वीट में और लिख देते कि भारत को भी फ़ुटबाल में आगे आने चाहिए, या सरकार फ़ुटबाल के खेल को बढ़ावा देगी।

क्या सचिन तेंदुलकर, शाहरुख़ खान, वीरेंद्र सहवाग, अभिषेक बच्चन, अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, प्रीति ज़िंटा, दीपिका पादुकोण इस खेल को बढ़ावा देने में आगे नहीं आ सकते। दीपिका फीफा ट्रॉफी के अनावरण के लिए क़तर जा सकती हैं, शाहरुख़ फीफा के मंच का इस्तेमाल अपनी फिल्म पठान के प्रमोशन के लिए कर सकते हैं तो अपने देश में फ़ुटबाल को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं कर सकते। शाहरुख़ खान क्रिकेट की टीमें इसलिए खरीदते हैं कि वहां से कमाई है तो क्या सबकुछ कमाई होती है, देश के प्रति कुछ और ज़िम्मेदारी नहीं होती। क्या दीपिका देश के अंदर किसी स्थानीय टूर्नामेंट में चीफ गेस्ट बनकर खिलाडियों और आयोजकों का हौसला नहीं बढ़ा सकतीं। सचिन को यहीं के लोगों ने भगवान् बना दिया तो क्या उस भगवान् की कुछ ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि वो बधाई के अलावा इस खेल को बढ़ावा भी दे, बिना पैसा लिए भारतीय फ़ुटबाल फेडरेशन का ब्रांड अम्बेसडर बन जाए ताकि युवाओं में इस खेल के प्रति रुझान बढे.

<strong> शाहरुख़ दीपिका फीफा के मंच का इस्तेमाल अपनी फिल्म पठान के प्रमोशन के लिए कर सकते हैं तो अपने देश में फ़ुटबाल को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं कर सकते <strong>

माना कि फ़ुटबाल को बढ़ावा देने में सरकार का सबसे ज़्यादा रोल होता है लेकिन सरकार की खेलों को बढ़ावा देने में कोई रूचि नहीं है और इसका सबूत खेल बजट है जो लगातार कम होता जा रहा है. क्रिकेट को छोड़ देश में जो भी टैलेंट उभर रहा है वो व्यक्तिगत तौर पर उभर रहा है उसमें कहीं से भी सरकार की कोई उपलब्धि नहीं है, यह अलग बात है कि जब कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कारनामा करता है और अपना व देश का नाम रौशन करता है तब उसका क्रेडिट लेने में सरकार ज़रूर सामने आती है. इसी तरह देश के दूसरे लोग जिनकी हैसियत होती है जो लोगों का, युवाओं का रोल मॉडल होते हैं एक ज़िम्मेदारी बनती है । इसमें सभी समान रूप से शामिल हैं, उद्योगपति जो पैसे से मदद कर सकते हैं और सेलेब्रिटीज़ जो हौसले से मददगार बन सकते हैं. इसके साथ खेल संगठन भी जिनके अधिकारी सिर्फ फोटो सेशन करने में व्यस्त रहते हैं, अख़बारों में उनकी फोटो छपती रहे यही उनका खेल के प्रति प्रेम होता है. यह मैदान में नहीं सिर्फ आफिसों में नज़र आते हैं. क्योंकि इन्हें उन मैदानों में जाते हुए शर्म आती हैं जहाँ मैदान के किनारे टूटा फूटा गोल पोस्ट अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा होता है. ज़रुरत है अपनी सोच बदलने की. नीचे से लेकर ऊपर तक.

हम दुनिया की सबसे युवा शक्ति हैं, ठान लें तो क्या नहीं कर सकते। तो प्रधानमंत्री जी, श्री सचिन जी और जनाब शाहरुख़ साहब थोड़ा बदलाव लाइए और बधाई देने की जगह बधाई पाने के प्रयास शुरू कीजिये। कोशिश कीजिये कि अगले दस सालों में हमारे पास भी कोई रोनाल्डो हो, कोई मेस्सी हो और कोई नेमार। मोरक्को जैसा छोटा सा देश सेमीफाइनल तक पहुँच गया तो क्या हम क्वालिफाइंग राउंड तक नहीं पहुँच सकते। ज़रूर पहुँच सकते है. देश में बहुत बड़ी संख्या में लोग कहते हैं कि मोदी है तो मुमकिन है, तो फिर भारत का वहां तक पहुंचना कैसे मुमकिन नहीं। दुष्यंत कुमार ने क्या खूब लिखा है कि कौन कहता है कि आस्मां में सुराख़ हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।

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