अमित बिश्नोई
बिहार से शुरू हुआ रामचरित मानस विवाद उत्तर प्रदेश में लगातार बढ़ता जा रहा है और एक धार्मिक विवाद अब धीरे धीरे राजनीतिक रूप लेता जा रहा है, ऐसा राजनीतिक रूप जो आगे आने वाले 2024 के चुनाव में कम से कम एक बहुत बड़ा मुद्दा बन सकता है. इस विवाद पर अबतक समाजवादी पार्टी का जो रुख रहा है उससे तो कम से कम यही लगता है कि वो इस विवाद को एक अवसर के रूप में देख रही है और शायद यही वजह है कि उसने इस विवाद पर अभी तक अपना स्पष्ट रुख सामने नहीं रखा है, अखिलेश जहाँ इस सवाल को जातिगत जनगणना से भटका देते हैं वहीँ चाचा शिवपाल उसे व्यक्तिगत बयान कहकर बात को टाल रहे हैं जबकि हकीकत यह है कि सपा चाहती है कि राम चरित मानस का यह विवाद चलता रहे.
समाजवादी पार्टी को कहीं न कहीं यह लगने लगा है कि इस विवाद के चलते आने वाले चुनाव में अति पिछड़ी जातियों-दलितों को अपने पक्ष में एक जगह लाया जा सकता है. अखिलेश यादव का एक विरोध प्रदर्शन में अचानक अपने आप को शूद्र से तुलना करना शायद यूँ ही नहीं था, कि गुस्से में यह बात निकल गयी हो। उनके इस बयान के पीछे आगे की सियासत नज़र आ रही थी और इस बात की पुष्टि सपा कार्यालय के बाहर वो होर्डिंग कर रही है जिस पर लिखा है “गर्व से कहो हम शूद्र हैं. उस होर्डिंग में भले ही उनकी तस्वीर नहीं लगी है लेकिन होर्डिंग का स्थान अपने आप में साड़ी कहानी कह रहा.
इससे हटकर अलग आप समाजवादी पार्टी की नयी राष्ट्रिय कार्यकारिणी पर नज़र डाले तो सपा की आने वाली राजनीती क्या होने वाली है साफ़ झलक रही है. इस नयी कार्यकारिणी का एलान भी इसी रामचरित मानस विवाद के दौरान हुआ. 64 सदस्यीय इस नयी टीम में 11 चेहरे सवर्ण हैं, 10 मुस्लिम हैं और बाकी OBC, पिछड़े, अति पिछड़े और दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं जिसमें यादव, पाल , निषाद, कुशवाहा, मौर्या, कुर्मी, दलित और आदिवासी समुदाय के लोग शामिल हैं. इस नई कार्यकारिणी को देखकर कहा जा सकता है कि यह अखिलेश की नयी सोशल इंजीनियरिंग है जो कभी कांशीराम की होती थी. इसी सोशल इंजीनियरिंग के तहत अखिलेश ने संगठन में जातीय आधार का फार्मूला अपनाया है. कार्यकारिणी में आप देखें तो दलितों की दूसरी बड़ी आबादी पासी समुदाय से दो राष्ट्रिय महासचिव बनाये गए , इसके अलावा चार सचिव भी हैं, जाटव समाज को भी जगह दी गयी है. गैर यादव और पिछड़ों, अति पिछड़ों की गोलबंदी का अखिलेश का यह सोचा समझा प्रयास है.
अपनी इसी गोलबंदी का प्रयास फलीभूत करने के लिए अखिलेश यादव राम चरित मानस विवाद एक अवसर ही कहा जायेगा। यहाँ पर भाजपा अभी आधिकारिक रूप से मुखर नहीं हो रही, कुछ हिन्दू संगठन, साधू और संत इस मुद्दे पर मुखरित विरोध ज़रूर कर रहे हैं लेकिन भाजपा इसका नफा नुक्सान तौल रही है, उसे यह अच्छी तरह मालूम है कि पिछड़ों का एकजुट होना और उससे अलग होना वह बर्दाश्त नहीं कर सकती। यूपी जैसे बड़े राज्य में जहाँ से भाजपा को दिल्ली की सत्ता तक पहुँचने में सबसे ज़्यादा मदद मिलती वहां पर अगर समाजवादी पार्टी ने रामचरित मानस विवाद की मौजूदा आपदा को अगर अपना अवसर बना लेती है उसका खामियाज़ा मोदी जी को भुगतना पड़ सकता है. यूपी जैसे बड़े राज्य में अगर भाजपा की सीटों में कमी आती है तो केंद्र की गद्दी डांवाडोल भी हो सकती है. इसलिए लगता तो नहीं कि भाजपा इस मुद्दे को हवा देगी क्योंकि ये सांप्रदायिक नहीं जातिगत मामला है, अगड़ों और पिछड़ों का मामला है, ऊंची जाति और शूद्रों का मामला है. अभी तक गर्व से कहो हम ये हैं हम वो हैं कहते सुनते आये थे लेकिन पहली बार देखा गया है कि गर्व से कहो हम शूद्र हैं कहा जा रहा है. लड़ाई दिलचस्प है, रामचरित मानस एक धार्मिक ग्रन्थ है मगर अब सियासत का केंद्र बना हुआ है.