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14 Phere Review: विक्रांत मैसी की अदाकारी पर टिकी 14 फेरे

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बीते 17 साल से एक्टिंग कर रहे विक्रांत मैसी अब तक 34 साल के हो चले है। उनकी अदाकारी मे उनके 17 साल की मेहनत दिखती हैं। हर दौर में कुछ कलाकार ऐसे होते हैं जो दर्शकों को के लिए काम करते हैं और उनके लिए जीते है विक्रांत उन्ही मे से एक हैं। उनके काम की तारीफ भी खूब होती है पर जाने वो कौन सी वजह है जो उनको मेनस्ट्रीम का सुपरस्टार नहीं बनने देती। अभिनेता विक्रांत मैसी भी किसी मायने में राजकुमार राव या आयुष्मान खुराना से कमजोर कलाकार नहीं दिखाई पढ़ते हैं। पिछली फिल्म ‘हसीन दिलरुबा’ में हाथ कटाकर प्रेमी नंबर वन बने थे। इस बार ’14 फेरे’ लेने के लिए तैयार है ।

फिल्म ’14 फेरे’ की कहानी मनोज कलवानी ने लिखी है। उन्होंने बिहार और राजस्थान के पढ़े लिखे लोगों की एक इमेज अपने मन में बनाई हुई है जो इस फिल्म को देख कर साफ पता चलता है। लड़के लड़की का लव मैरिज करने की तैयारी करना और उसे अरेंज्ड मैरिज दिखाना परिवारों के  बढ़े बूढ़ों मुखियाओं को बेवकूफ बनाना, एक लाइन मे यही फिल्म 14 PHERE ।

फिल्म ’14 फेरे’ की अतरंगी सी दिखती कहानी की ऐसी तैसी स्क्रिप्ट ने कर दी । कहानी इतना गोल-गोल घुमाती है की सर चकरा जाता है कहानी का मेन मुद्दा अंतर्जातीय विवाह, ऑनर किलिंग, महिलाओं का शोषण कहीं खो से गए हैं। पटकथा की दिक्कत ये है कि फिल्म दो घण्टे से भी कम की है फिर भी फिल्म किरदारों को समझाने में ही आधा घंटा खा जाती है। इसके बाद कहानी का बढ़नी शुरू होती है अपनी मंजिल तक पहुंचने व कॉमेडी के बेतुके तरीकों के कारण यह दर्शकों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब नहीं हो पाती। देवांशु सिंह का निर्देशन भी कमजोर है। अच्छी कहानी होने के बाद भी फिल्म को बेहतर पटकथा में तब्दील नही कर पाया गया है इन्हीं कलाकारों के साथ यह एक उम्दा फिल्म बन सकती थी।

अभिनय के मामले मे ये फिल्म विक्रांत मैसी और गौहर खान के लिए ही बनी है। विक्रांत मैसी जरूरत के हिसाब से चेहरे के भाव बदलते हैं। इमरजेंसी कॉल पर जहानाबाद पहुंचने वाला सीन फिल्म का सबसे बढ़िया घटनाक्रम है। संवाद अदायगी हर चीज़ मे विक्रांत रंग जमाने में कामयाब रहते हैं। कृति खरबंदा एक जैसी ऐक्टिंग ही करती दिखतीं है हर फिल्म मे। गौहर खान ने इस बार चौंकाया है। बिहारी बाप के तौर पर विनीत कुमार और नकली बाप के किरदार में जमील खान ने माहौल बनाया है यामिनी दास तो विक्रांत मैसी की मां का किरदार करने के लिए ही बनी हो जैसे ।

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फिल्म में रिजू दास की सिनेमैटोग्राफी काफी उम्दा है। राजीव भल्ला और जैम8 ने संगीत को आज के हिसाब से बनाने की कोशिश की है लेकिन कहानी के किरदारों के हिसाब से यह मेल नही खाता संपादन फिल्म की एक और कमजोर कड़ी है। मनन सागर को फिल्म का सार लाने मे इतना वक़्त नही लेना चाहिये था। वीकएंड पर यह फिल्म टाइमपास जैसी है ।

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बीते 17 साल से एक्टिंग कर रहे विक्रांत मैसी अब तक 34 साल के हो चले है। उनकी अदाकारी मे उनके 17 साल की मेहनत दिखती हैं। हर दौर में कुछ कलाकार ऐसे होते हैं जो दर्शकों को के लिए काम करते हैं और उनके लिए जीते है विक्रांत उन्ही मे से एक हैं। उनके काम की तारीफ भी खूब होती है पर जाने वो कौन सी वजह है जो उनको मेनस्ट्रीम का सुपरस्टार नहीं बनने देती। अभिनेता विक्रांत मैसी भी किसी मायने में राजकुमार राव या आयुष्मान खुराना से कमजोर कलाकार नहीं दिखाई पढ़ते हैं। पिछली फिल्म ‘हसीन दिलरुबा’ में हाथ कटाकर प्रेमी नंबर वन बने थे। इस बार ’14 फेरे’ लेने के लिए तैयार है ।

फिल्म ’14 फेरे’ की कहानी मनोज कलवानी ने लिखी है। उन्होंने बिहार और राजस्थान के पढ़े लिखे लोगों की एक इमेज अपने मन में बनाई हुई है जो इस फिल्म को देख कर साफ पता चलता है। लड़के लड़की का लव मैरिज करने की तैयारी करना और उसे अरेंज्ड मैरिज दिखाना परिवारों के  बढ़े बूढ़ों मुखियाओं को बेवकूफ बनाना, एक लाइन मे यही फिल्म 14 PHERE ।

फिल्म ’14 फेरे’ की अतरंगी सी दिखती कहानी की ऐसी तैसी स्क्रिप्ट ने कर दी । कहानी इतना गोल-गोल घुमाती है की सर चकरा जाता है कहानी का मेन मुद्दा अंतर्जातीय विवाह, ऑनर किलिंग, महिलाओं का शोषण कहीं खो से गए हैं। पटकथा की दिक्कत ये है कि फिल्म दो घण्टे से भी कम की है फिर भी फिल्म किरदारों को समझाने में ही आधा घंटा खा जाती है। इसके बाद कहानी का बढ़नी शुरू होती है अपनी मंजिल तक पहुंचने व कॉमेडी के बेतुके तरीकों के कारण यह दर्शकों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब नहीं हो पाती। देवांशु सिंह का निर्देशन भी कमजोर है। अच्छी कहानी होने के बाद भी फिल्म को बेहतर पटकथा में तब्दील नही कर पाया गया है इन्हीं कलाकारों के साथ यह एक उम्दा फिल्म बन सकती थी।

अभिनय के मामले मे ये फिल्म विक्रांत मैसी और गौहर खान के लिए ही बनी है। विक्रांत मैसी जरूरत के हिसाब से चेहरे के भाव बदलते हैं। इमरजेंसी कॉल पर जहानाबाद पहुंचने वाला सीन फिल्म का सबसे बढ़िया घटनाक्रम है। संवाद अदायगी हर चीज़ मे विक्रांत रंग जमाने में कामयाब रहते हैं। कृति खरबंदा एक जैसी ऐक्टिंग ही करती दिखतीं है हर फिल्म मे। गौहर खान ने इस बार चौंकाया है। बिहारी बाप के तौर पर विनीत कुमार और नकली बाप के किरदार में जमील खान ने माहौल बनाया है यामिनी दास तो विक्रांत मैसी की मां का किरदार करने के लिए ही बनी हो जैसे ।

फिल्म में रिजू दास की सिनेमैटोग्राफी काफी उम्दा है। राजीव भल्ला और जैम8 ने संगीत को आज के हिसाब से बनाने की कोशिश की है लेकिन कहानी के किरदारों के हिसाब से यह मेल नही खाता संपादन फिल्म की एक और कमजोर कड़ी है। मनन सागर को फिल्म का सार लाने मे इतना वक़्त नही लेना चाहिये था। वीकएंड पर यह फिल्म टाइमपास जैसी है ।

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