अमित बिश्नोई
मेरठ से भाजपा के उम्मीदवार अरुण गोविल ने दशकों पहले धारावाहिक रामायण में भगवान् राम का किरदार निभाया था, अब जब वो चुनावी राजनीती में उतर आये हैं तो खुद को भगवान् राम का स्वरुप मानते हैं, उनका कहना है कि लोग उनके पैर इसलिए छूते हैं क्योंकि उनमें वो भगवान् राम को देखते हैं, उनकी आस्था भगवान् राम में है और अब वो अरुण गोविल को प्रणाम इसलिए करते हैं क्योंकि अरुण गोविल के रूप में भगवान् राम को एक स्वरुप मिल गया है। अरुण गोविल की मेरठ पहुँचने पर डायलॉग डिलीवरी बिलकुल रामायण के पात्र जैसी ही है। ऐसा लग रहा है जैसे दशकों बाद उन्हें इस पात्र को एकबार फिर जीवंत करने की ज़िम्मेदारी दी गयी है।
मेरठ पहुंचकर चुनावी सरगर्मी शुरू करने वाले अरुण गोविल बड़े ही सहज भाव से टेढ़े सवालों का भी दार्शनिक जवाब देते हैं। जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि वो चुनाव बाद मेरठ को कितना समय दे पाएंगे तो उन्होने कहा कि ये तो समय ही बताएगा। अब इस जवाब का आप अपने तरीके मतलब निकालने के लिए स्वतंत्र हैं, गोविल साहब ने तो सब समय पर छोड़ दिया, समय बड़ा बलवान। उनके प्रचार अभियान की शुरुआत करने स्वयं प्रधानमंत्री मोदी मेरठ पधार रहे हैं. 31 मार्च को एक विशाल रैली होगी जहाँ से मेरठ के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उन आठों सीटों के लिए राम का सन्देश पहुँचाया जायेगा जहाँ पहले चरण का चुनाव है और 19 अप्रैल को वोट पड़ेंगे। मोदी जी के साथ मंच पर भगवान् के स्वरुप के रूप में अरुण गोविल मौजूद रहेंगे।
मुख्यमंत्री योगी पहले ही कह चुके है कि मेरठ की पहचान अब अरुण गोविल से होगी। मतलब मेरठ अब खेलों के सामान के लिए नहीं अरुण गोविल के लिए जाना जाएगा, क्यों नहीं, भगवान् राम का स्वरुप जो हैं. गोविल साहब जीवन को एक सफर बताते हैं, जोकि सच है और यही वजह है उनकी घर वापसी हुई है। मेरठ उनका घर है, उन्होंने यहीं पर जन्म लिया है, सरस्वती शिशु मंदिर में आरंभिक पढ़ाई की है। फिर 17 साल बाद वो जीवन के सफर पर मेरठ को त्याग कर निकल गए, अपना कैरियर बनाने के लिए. अब दशकों बाद मेरठ में उनकी वापसी हुई है. राजनीती करने के लिए लेकिन वो तो कहते हैं कि उन्हें राजनीति आती ही नहीं, उन्हें सिर्फ काम करना ही आता है और मेरठ में वो सिर्फ काम ही करेंगे। उनके मुताबिक धरती पर मेरठ जैसी कोई जगह ही नहीं है, यही वजह है कि वो दशकों बाद मेरठ की तरफ खींचे चले आये हैं।
आज वो मेरठ को पहचान नहीं पा रहे हैं, जब वो मेरठ में थे और इंटरकालेज में पढ़ाई करते थे तब हर साल किसी न किसी की हत्या हो जाती थी, महीना महीना भर कालेज बंद रहते थे, आज वो मेरठ को पहचान नहीं पा रहे हैं। ये बात अलग है कि पहले साल में एक हत्या होती थी और अब हर हफ्ते एक हत्या होती है लेकिन अब कालेज बंद नहीं होते क्योंकि जीरो टॉलरेंस के ज़माने में भी हत्याएं अब रूटीन वर्क में शामिल है. गोविल साहब को पता नहीं, मेरठ से लम्बा वनवास जो काटा है, अब लौटे हैं तो मेरठ के बारे में जानने में थोड़ा बहुत समय तो लगेगा ही। लोग उन्हें बाहरी कह रहे हैं, ये बात उन्हें बिलकुल अच्छी नहीं लगी. गोविल साहब कहते हैं कि वो बाहरी कैसे हुए, क्या रोज़ी रोटी कमाने के लिए बाहर जाने वाला बाहरी हो जाता है. अरे गोविल साहब ये राजनीती है, यहाँ पर इस तरह की बातें तो होंगी ही. आप खुद ही कहते हैं कि आपको राजनीति नहीं आती. नहीं आती है तो सीखिए नहीं तो लोग जीने नहीं देंगे, क्योंकि ये कलयुग है