अमित बिश्नोई
एक लोकतान्त्रिक देश में अपनी पहचान बताना कि वो हिन्दू है, मुसलमान है या किसी अन्य धर्म या जाति का इससे बुरा क्या हो सकता है. दुकानदारों को ये बताना ज़रूरी कर दिया जाय कि वो लोगों को बाकायदा लिखकर बताये कि वो हिन्दू या मुसलमान, उसके होटल, ढाबे या खाने पीने की दूकान, फलों और चाय के ठेले पर ये लिखना ज़रूरी कर दिया जाय कि ये दूकान आरिफ की है या फिर आशुतोष की, उसके ढाबे पर काम करने वालों के नाम जुम्मन या कलीम तो नहीं ताकि कांवड़ लेकर निकले कांवड़ियों को ये पता चल जाय कि उसे आरिफ के ठेले से आम लेकर खाना है या नहीं, कहीं आरिफ को अनजाने में आशुतोष समझकर उसके ठेले से आम लेकर खाने से किसी कांवड़िये की धार्मिक आस्था को ठेस न पहुँच जाय. ख़ास बात ये कि नफरत की ये कवायद सरकार की तरफ की जा रही है और बाकायदा उसका प्रचार प्रसार भी किया जा रहा है लेकिन भला हो देश की शीर्ष अदालत का जिसने इस अलोकतांत्रिक और सांप्रदायिक सौहार्द को ठेस पहुँचाने वाले फैसले पर आंतरिक रोक लगाकर नफरती फरमान जारी करने वाली योगी सरकार को फटकार लगाई, यही नहीं, योगी आदित्यनाथ की रंग में रंगे मध्यप्रदेश और उत्तराखंड की सरकारों को भी नोटिस जारी किये क्योंकि मोहन यादव और पुष्कर धामी भी योगी आदित्यनाथ के पदचिन्हों पर चल निकले थे.
शीर्ष अदालत अब इस मामले पर 26 जुलाई को सुनवाई करेगी लेकिन उसने अंतरिम आदेश देकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को एक बहुत बड़ा झटका दिया है जिन्होंने कांवड़ रूट में दुकानदारों के नेमप्लेट लगाने का मुज़फ्फरनगर पुलिस प्रशासन का आदेश पूरे प्रदेश में बढ़ा दिया था. ये जानते हुए भी कि इस तरह का फैसला भारतीय समाज को बांटने वाला है योगी आदित्यनाथ अपने फैसले को सही साबित करने में डटे हुए हैं और मजबूर होकर एक NGO को सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा जहाँ आज ये अंतरिम फैसला आया है और साथ में ये सन्देश भी कि कानून के हिसाब से भी इस तरह के फैसले गलत हैं. हालाँकि बाद में कहा गया कि इसे स्वैच्छिक बना दिया गया है लेकिन ऐसे बहुत से वीडियोज़ सोशल मीडिया पर वायरल हैं जहाँ पुलिस वाले दुकानों पर, ठेलों और खोमचों पर मालिक का नाम लगाते हुए देखे जा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट का ये अंतरिम फैसला ये दिखाता है कि इस तरह के फैसलों पर हमेशा सरकार को मुंह की खानी पड़ती है लेकिन राजनीतिक मजबूरियों या फिर राजनीतिक चाल के तौर पर भाजपा इस तरह हरकते करती रहती है और फिर उसका आफ्टर इफ़ेक्ट देखती है कि क्या हुआ, इस बीच नफरती सन्देश का इम्पैक्ट समाज के एक बड़े तबके पर हो चूका होता है.
आज ही जब सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम आदेश आया उसके बाद सोशल मीडिया पर ऐसे मेसेजों की बाढ़ सी आ गयी जिसमें योगी सरकार को इसलिए बुरा भला कहा जा रहा है क्योंकि वो सुप्रीम कोर्ट में अपने नेम प्लेट वाले आदेश को सही ढंग से रख नहीं सकी. इन मेसेजों में लोग सरकार की तरफ से पेश वकीलों गालियां दे रहे हैं कि वो जानबूझकर इस मामले पीछे हट गए और सरकार को मुंह की खानी पड़ी. कहने का मतलब ये सब वही लोग थे जिनतक योगी सरकार को अपना मेसेज पहुँचाना था कि हमने तो हिंदुत्व की रक्षा के लिए ये कदम उठाया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसमें अड़ंगा लगा दिया। सुप्रीम कोर्ट के सामने याचिकाकर्ताओं के वकील ये साबित करने में कामयाब रहे कि ये विभाजनकारी फैसला है क्योंकि योगी सरकार के इस आदेश से अल्पसंख्यकों की पहचान कर उनका आर्थिक बहिष्कार किया जा रहा है। एक तरह से अल्पसंख्यक दुकानदारों को पहचानकर उनके आर्थिक बहिष्कार जैसी बात है ये. इस आदेश का बुरा प्रभाव सिर्फ यूपी तक नहीं बल्कि यूपी से निकलकर उत्तराखंड और मध्य प्रदेश तक पहुँच गया क्योंकि वहां की सरकारों ने भी हिन्दू ह्रदय सम्राट माने जाने वाले योगी आदित्यनाथ के इस नफरती फरमान को अपने प्रदेश में भी लागू किया।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नियमों के मुताबिक दुकानदारों से ये तो कहा जा सकता है कि वो अपने होटल या ढाबे में ये तो लिख सकते हैं कि उनके यहाँ क्या क्या व्यंजन परोसे जाते हैं लेकिन उन्हें परोस कौन रहा है या होटल का मालिक कौन है ये लिखना ज़रूरी नहीं। अभी इस मामले की सुनवाई 26 जुलाई को है. अब देखना ये है कि शीर्ष अदालत के इस अंतरिम आदेश का पालन कितना और कैसे होता है, क्या योगी सरकार अपने इस आदेश को वापस लेगी या फिर स्वेच्छा वाली बात का बहाना लेकर इसपर चुप्पी साध लेगी और पुलिस प्रशासन इस मामले में अपने तौर पर काम करता रहेगा। बार बार छोटे छोटे से मामले में बुलडोज़र चल जाने वाले इस प्रदेश में क्या किसी होटल, ढाबे या ठेले वाले में ये हिम्मत कि पुलिस द्वारा लगाया गया नाम और फोन नंबर सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद भी अपनी मर्ज़ी से हटा सकेगा। पर कुछ भी कहिये, सुप्रीम की फटकार और नफरती फरमान पर अंतरिम रोक योगी सरकार के लिए एक करारा तमाचा ज़रूर कहा जाएगा।