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खोती जा रही चुनाव की पवित्रता

आर्टिकल/इंटरव्यूखोती जा रही चुनाव की पवित्रता

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अमित बिश्‍नोई

भले ही इन दिनों भारत में क्रिकेट का विश्व कप खेला जा रहा है लेकिन क्रिकेट से ज़्यादा देश इस समय चुनावी मोड में है, पांच राज्यों मिजोरम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना के विधानसभा चुनावों की शुरुआत 7 नवंबर को मिजोरम में मतदान से हो रही है, 2024 के आम चुनाव से पहले ये चुनाव सेमीफाइनल की तरह हैं, 3 दिसंबर को पाँचों राज्यों के चुनावी नतीजे आ जायेंगे और नई सरकारें भी बन जाएंगी. सवाल यह नहीं है कि कौन जीतेगा या कौन हारेगा, किसकी सत्ता बरक़रार रहेगी और किसकी सत्ता छिन जाएगी। सवाल यह है कि इन चुनावों के बाद हमारा लोकतंत्र मजबूत होगा या कमजोर? ये सवाल इस लिए क्योंकि चुनाव जीतने के लिए नेताओं द्वारा अलोकतांत्रिक बयानों का दौर शुरू हो चुका है, अलोकतांत्रिक हथकंडे अपनाने की भी ख़बरें आने लगी हैं.

केवल चुनाव होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि हमारा लोकतंत्र सही तरीके से फल-फूल रहा है। लोकतंत्र की इस पूरी प्रक्रिया में ईमानदारी से भाग लेना उम्मीदवार और मतदाता दोनों की बड़ी जिम्मेदारी मानी जाती है। लेकिन सवाल यही है कि क्या हमारी राजनीति में ईमानदारी नाम जैसी कोई चीज बची है? धर्म और जाति के नाम पर मतदाताओं को गुमराह किया जा रहा है, झूठे वादे करना तो एक चलन बन गया है, नेताओं द्वारा सफ़ेद झूठ बोले जा रहे हैं, कोई दावे कर रहा है कि देश में आईआईटी, आईआईएम, एम्स ये सब सबसे पहले उसकी सरकार में बने यानी 2014 के बाद, चुनावी मंचों से लगातार धर्म का उपयोग हो रहा है, जातीय वैमनस्यता फैलाई जा रही है. जातियों के उत्थान के नाम पर एक दल जहाँ जातिगत जनगणना की बात कर रहा है तो वहीँ सत्ताधारी दल संसद में महिला अधिकार की बात कर रहा है, ऐसा कानून बना रहा है जो लागू होगा भी या नहीं, कब लागू होगा, कैसे लागू होगा, उसे भी नहीं पता, दूसरे शब्दों में देश की आधी आबादी से खुले आम छल किया जा रहा है.

हर कोई अपना महिमामंडन करने में लगा हुआ है और इसके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों को नकारने में कोई भी पीछे नहीं रहना चाहता।जबकि होना तो यह चाहिए कि राजनीतिक पार्टियां अपनी-अपनी नीतियों और योजनाओं का ब्योरा लेकर जनता के बीच जाएं। मगर इसके बजाये ज़ोर इस बात पर है कि 70 सालों में क्या हुआ, न कि पिछले 10 सालों में क्या हो रहा है, आज क्या हो रहा है. अगले पांच साल क्या होने वाला है उसकी चर्चा नहीं, अगले 25 सालों का सपना दिखाया जा रहा है. पूरी राजनीति एक दूसरे को कोसने और अपना ढोल बजाने और अपनी पीठ ठोंकने तक ही सीमित होकर रह गई है। हमने क्या किया, हम क्या करेंगे इसके बजाय विरोधी अगर आ गया तो ये कर देगा , वो करदेगा, जनता को डराने का एक खेल चल रहा है. जो जितना बड़ा नेता है, अपने विरोधी नेता को उतना ही ज़्यादा बदनाम करने की कोशिश में लगा हुआ है. वर्तमान को छोड़ या तो भूतकाल में विचरण हो रहा है या फिर भविष्य के सुनहरे सपने दिखाए जा रहे हैं.

वोटरों को लुभाने की एक बेशर्म सी होड़ मची हुई है. होना तो ये चाहिए कि सत्ता पक्ष अपनी उपलब्धियों का लेखा-जोखा वोटर्स के सामने रखे और विपक्ष सत्ता की कमजोरियों और नाकामियों को उजागर करे और यह बताये कि उसके पास जनता के लिए क्या योजनाएं हैं। मगर इसके बजाये वोटरों को झुण्ड में बांटने की कोशिश हो रही है, एक दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ लगी हुई है. भाषा की कोई मर्यादा नहीं रह गयी है, राजनीतिक हमलों की जगह अब व्यक्तिगत हमलों ने ले ली है, कैरेक्टर असैसिनेशन खुले आम होने लगा है, संसद की गरिमा भी तार तार हो रही है. सुना था प्यार और जंग में सबकुछ जायज़ होता है, शायद हमारे राजनेता उसी पर अमल कर रहे हैं. राजनीतिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर अब खुले आम गालियों का आदान प्रदान शुरू हो गया है और शर्म की बात ये है कि किसी को भी इसपर शर्म नहीं आती.

सवाल ये है कि क्या जीत ही सबकुछ है, क्या जीत के लिए कुछ भी करना जायज़ है. एक वक्त था जब चुनाव को लोकतंत्र के एक पर्व के रूप में देखा जाता था लेकिन क्या आज हम ऐसा कह सकते हैं, क्या आज हम चुनाव की पवित्रता की बातें कर सकते हैं. चुनाव जीतने की होड़ में सारी मर्यादाएं लांघी जा रही हैं, चुनावी पर्व की पवित्रता को भंग किया जा रहा है. मतदाता निराश हो चला है, लोकतंत्र पर लोगों का भरोसा कम हो चला है. हमें जागना होगा नहीं तो किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने की होड़ देश के लोकतंत्र को खोखला करती रहेगी, जनता की उम्मीदों को रौंदती रहेगी। मतदाताओं के पास यही वक्त है कि वो इन चुनावों में अपने विवेक का सही इस्तेमाल करे, लोकतंत्र की रक्षा करने का उनके पास यही सबसे अच्छा अवसर होता है.

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