अमित बिश्नोई
उत्तराखंड की राजनीति में हरक सिंह रावत का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं है. प्रदेश के एक कद्दावर और जननेता के रूप में इनका नाम शुमार होता है, कांग्रेस में थे तब भी, भाजपा में गए तब भी और अब वापस अपनी मूल पार्टी में आये हैं तब भी, हालाँकि आजकल समय उनका साथ नहीं दे रहा है, परिस्थितियां अनुकूल नहीं है. चुनाव से पहले भाजपा छोड़ना, मंत्री पद का त्याग करना, कांग्रेस में वापसी करना और यहाँ भी वह जिस सम्मान के हक़दार थे उसका न मिलना, खुद का चुनाव न लड़ना और बहू का चुनाव हार जाना, सबकुछ इन दिनों हरक सिंह रावत की सोच के विपरीत ही गया, लेकिन हर राजनेता के जीवन में परेशानियों का एक दौर आता है और शायद यह वही दौर है जिसके बाहर हरक सिंह रावत (Harak Singh Rawat) को निकलना है।
Read also: पुष्कर धामी: उत्तराखंड की नयी पहचान
कहते हैं अंधकार के बाद ही उजाले की उम्मीदें बढ़ती हैं और जब यह नया सवेरा आता है तो नई आशाओं का संचार भी होता है. हरक सिंह रावत जैसे क़द के नेता के लिए यह क्षणिक रुकावट भले ही हो सकती है, विराम नहीं। अभी उनमें बहुत शक्ति और ऊर्जा बाक़ी है. वैसे भी स्थितियों पर अगर गौर से नज़र दौड़ाएं तो इस असफलता में भी कहीं सफलता की किरण नज़र आती है, अपवाद स्वरुप भाजपा में गुज़ारे पिछले कुछ साल अगर अलग कर दें तो हरक सिंह रावत ने सारी ज़िन्दगी कांग्रेस की राजनीति की है, यूपी से लेकर उत्तराखंड बनने तक एक लम्बा राजनीतिक सफर तय किया है, एक विधायक के रूप में एक मंत्री के रूप में और एक विपक्ष के नेता के रूप में।
1991 में पौड़ी से विधायक बन यूपी सरकार के सबसे युवा मंत्री बनने वाले हरक सिंह रावत ने इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। उत्तराखंड राज्य बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हरक सिंह रावत ने राज्य के गठन के बाद लगातार विधानसभा में पहुंचे, सत्ता में रहे तो महत्वपूर्ण विभागों को संभाला, नेता विपक्ष बने तो सदन में जनता और राज्य के विकास के लिए सरकार से ज़ोरदार ढंग से लड़े।
राजनीति में महत्वकांक्षा का बड़ा महत्त्व होता है, कभी खुद की तो कभी दूसरे की और शायद यही वजह रही कि कांग्रेस पार्टी से राजनीतिक सफर शुरू करने वाले हरक सिंह रावत को हाथ का साथ छोड़ भाजपा का दामन पकड़ना पड़ा. कांग्रेस छोड़ने की क्या वजह रही इसके अनेक कारण थे, लेख में उनकी चर्चा करेंगे तो बात बहुत लम्बी हो जाएगी। वजह कुछ भी रही हो मगर भाजपा छोड़ने से पहले वहां भी हरक सिंह ने अपनी शर्तों पर ही सियासत की और जब उसमें रूकावट आने लगी तो सम्मान के साथ उसका साथ छोड़ दिया और घर वापसी की, हालाँकि उनकी घर वापसी आसान नहीं रही क्योंकि उत्तराखंड कांग्रेस पर क़ाबिज़ लोगों को यह मंज़ूर नहीं था कि हरक सिंह रावत जैसा बड़ा नेता वापस आकर उनके क़द को छोटा करे लेकिन उनका क़द इतना बड़ा है कि न चाहते हुए भी उन्हें हरक सिंह पर हामी भरनी पड़ी।
बहरहाल विधानसभा चुनावों में उम्मीद के विपरीत कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा. कहा जा रहा था कि इस बार उत्तराखंड की सत्ता कांग्रेस के लिए प्लेट में सजे एक केक की तरह है जिसे सिर्फ काटकर खाना है और जश्न मनाना है. लेकिन पासा उल्टा पड़ गया, हरीश रावत के सारे दांव, सारी रणनीति की धज्जियाँ उड़ गयीं, कांग्रेसी सकते में, आला कमान भी सकते में. हरीश रावत पर उँगलियाँ उठने लगीं, यहाँ तक कि टिकट वितरण में पैसे के लेनदेन के आरोप भी लगने लगे, हरीश रावत को इस पर सार्वजानिक सफाई भी देनी पड़ी. प्रदेश अध्यक्ष ने इस्तीफ़ा भी दे दिया और हमेशा की तरह हार पर मंथन और मंत्रणाओं का दौर चल रहा है. इन सबके बीच एक बात तो बिलकुल साफ़ है कि चुनाव के दौरान हरक सिंह रावत का सदुपयोग नहीं किया गया, शायद लोकल पॉलिटिक्स इसकी वजह रही।
Read also: शिवपाल की भाजपा से बढ़ती नज़दीकियां, कब उठेगा पर्दा?
हारे हुए अन्य राज्यों की तरह उत्तराखंड में भी अभी किसी को प्रदेश की ज़िम्मेदारी नहीं दी गयी है, 2024 के आम चुनावों की तैयारी भाजपा ने शुरू कर दी है, कांग्रेस पार्टी अभी मंथन के मोड में है, कौन होगा राज्य में पार्टी का अगला खेवनहार। हरीश रावत की नाकामी जग ज़ाहिर हो चुकी है, पंजाब की स्थिति को बिगाड़ने का उनपर आरोप पहले है, उत्तराखंड में तमाम अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद नाकामी के ज़िम्मेदार वही माने जायेंगे क्योंकि आला कमान ने उनको पूरी छूट दे रखी थी, सारे चुनावी फैसले उन्ही के थे, शायद इसीलिए कहा जा रहा था कि राज्य में मुकाबला भाजपा और हरीश रावत के बीच है. तो सवाल यही उठता है कि क्या कांग्रेस बार बार असफल हो रहे नेता पर फिर दांव लगाएगी या फिर कोई अन्य चेहरा सामने आएगा या फिर हरक सिंह रावत? चौंकिए मत! राजनीति संभावनाओं का खेल है, हरक सिंह में भरपूर संभावनाएं हैं, कांग्रेस पार्टी के लिए राज्य की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए हरक सिंह रावत एक सुरक्षित दांव साबित हो सकते हैं।