अमित बिश्नोई
बसपा सुप्रीम मायावती को प्रयोग करने वाली नेताओं में माना जाता है, उनकी सोशल इंजीनियरिंग का ही नतीजा था जिसने बहुजन समाज पार्टी को 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत दिया था. इस प्रयोग को उन्होंने अगले कुछ चुनावों में बरकरार रखने की कोशिश लेकिन पहले की तरह कामयाबी नहीं मिली और पार्टी के जनाधार में धीरे धीरे गिरावट आती गयी जो लगातार बढ़ती गयी, 2022 में उन्होंने अपनी रणनीति बदलते हुए दलित और मुस्लिम कार्ड खेला, थोक भाव में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे लेकिन उसका उन्हें तो कोई फायदा नहीं हुआ, अलबत्ता सत्ता में वापसी के सपने देख रही सपा का ज़रूर नुक्सान हो गया. तो इसबार के लोकसभा चुनाव में वो एकबार फिर सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले पर लौटती हुई नज़र आ रही हैं , कम से कम अभी तक जो एक दर्जन से ज़्यादा नाम सामने आये हैं उन्हें देखकर तो ऐसा ही लगता है।
मायावती की पुरानी रणनीति पर वापसी को लेकर राजनीतिक पंडितों का कहना है कि उनके पास अब नया प्रयोग करने के लिए न तो हिम्मत है और न ही जनाधार इसलिए वो अपनी आज़माई हुई सोशल इंजीनियरिंग के सहारे अपने ख़त्म होते वजूद को फिर से बहाल करना चाहती हैं। राजनीती में किसी भी पार्टी के लिए सत्ता से लम्बे समय तक दूरी उसकी जड़ों को खोखला करने लगती है, उसके काडर के हौसलों को तोड़ने लगती है. यूपी, बिहार, गुजरात, कई प्रदेश ऐसे है जहाँ कांग्रेस पार्टी दशकों से सत्ता से बाहर है और इन सभी प्रदेशों में उसकी हालत सभी के सामने है। हालत ये है कि अमेठी और रायबरेली सीट से अगर राहुल और प्रियंका चुनाव नहीं लड़ेंगे तो इस सीट पर उनके पास कोई ढंग का उम्मीदवार भी नहीं है।
बहुजन समाज पार्टी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, ये तो 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे दस सीटें मिल गयी और उसका वजूद मिटने से बच गया लेकिन 22 के विधानसभा चुनाव में तो वो सिरे से साफ़ हो गयी। ये सभी जानते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में हाथी को अगर साइकिल का साथ न मिला होता तो किसी भी हालत में उसे दस सीटों पर जीत नहीं मिली होती। दूसरे उस समय दलित और मुस्लिम प्रयोग कामयाब हो गया था जो 22 के विधानसभा चुनाव में फ्लॉप हो गया क्योंकि मुस्लिम वोट एकमुश्त सपा को पड़ गया. मजबूरन इस बार उन्हें दलित और मुस्लिम के साथ सवर्णों पर ध्यान केंद्रित करना पड़ रहा है. शुरुआत उन्होंने चार मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारकर की, फिर अगली लिस्ट में सात सवर्ण उम्मीदवार उतार दिए जिनमें पांच ब्राह्मण समुदाय के हैं। अपने कोर काडर दलित समुदाय से अभी तक सिर्फ तीन उम्मीदवार उतारे हैं, इसके अलावा दो OBC प्रत्याशियों के नामों का एलान किया है।
बसपा के शुरूआती नामों को तो देखकर लगता है कि हाथी INDI अलायन्स विशेषकर सपा के लिए मुसीबत खड़ी करने वाला है वहीँ ND अलायन्स विशेषकर भाजपा के लिए भी परेशानी खड़ी कर सकता है। सपा जहाँ मुस्लिम वोट पर दावा करती है वहीँ भाजपा सवर्ण वोटों पर. लेकिन क्या वाकई ऐसा है? 2007 से लेकर अबतक समय बहुत बदल गया है, सपा में भले ही बहुत बदलाव न हुआ हुआ लेकिन भाजपा ने अपने आपको बहुत मज़बूती के साथ खड़ा कर लिया है। दलित वोट जो कभी एकमुश्त होकर बसपा को पड़ता था, इस वोट बैंक पर एक तरह से बसपा की मोनोपोली थी उसे भाजपा ने तहस नहस कर दिया है और आज स्थिति ये है कि दलित वोटों में सिर्फ जाटव समाज मायावती के साथ खड़ा है हालाँकि भाजपा ने उसमें भी सेंध लगाईं है. दलित वोट सपा को कभी नहीं मिला और न ही सपा दलित वोट बैंक पर ज़्यादा तवज्जो देती है. उसका फोकस हमेशा MY पर रहा है, हालाँकि पिछले कुछ चुनावों में यादव वोट बैंक पर भी अखिलेश का एकाधिकार नहीं रहा,अलबत्ता मुस्लिम वोट बैंक उनके ही साथ है. तमाम कोशिशों के बावजूद वो भाजपा की तरफ नहीं जाता है. ऐसे में बसपा की सोशल इंजीयरिंग का फार्मूला उसे कामयाबी दिलाएगा ही इसमें संशय है, हाँ ND अलायन्स और INDI अलायन्स को थोड़ा बहुत नुक्सान ज़रूर पहुंचा सकता है, लेकिन कितना, इसपर स्पष्ट रूप से कहना संभव नहीं है. निश्चित रूप से दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर पूरे देश में चुनावी लड़ाई ND अलायन्स और INDI अलायन्स के बीच बन चुकी है जिसमें किसी तीसरे के लिए कोई जगह नज़र नहीं आ रही है ऐसे में सवाल यही रहेगा कि अकेला चलने का फैसला करके मायावती ने कहीं पार्टी के लिए कोई घातक कदम तो नहीं उठा लिया या फिर सिर्फ नुक्सान पहुँचाना ही उनका मकसद है। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि ममता की तरह अखिलेश भी यूपी में अकेले चुनाव लड़ने की हैसियत में थे लेकिन देश का मिजाज़ भांपते हुए जंग के मैदान में किसी एक तरफ जाना ही उन्होंने बेहतर समझा। मायावती ने अकेले जाकर बहुत बड़ा रिस्क लिया है देखना है कि इस रिस्क से हाथी खड़ा हो जाता है या फिर पड़ा ही रहता है। माया की माया माया ही जाने।