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जम्मू-कश्मीर चुनाव: अग्नि परीक्षा तो सबकी है

आर्टिकल/इंटरव्यूजम्मू-कश्मीर चुनाव: अग्नि परीक्षा तो सबकी है

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अमित बिश्नोई
जम्मू-कश्मीर चुनावों के लिए दूसरे दौर के मतदान के लिए चुनावी प्रक्रिया चुनाव आयोग द्वारा आज नोटिफिकेशन जारी होते ही शुरू हो गयी है, वहीं पहले दौर के लिए नामांकन प्रक्रिया बंद हो चुकी है। चुनाव तीन दौर में होंगे. 2014 के चुनाव के बाद जम्मू कश्मीर में पहली बार विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं. तब से लेकर आजतक बहुत कुछ बदल चूका है. कश्मीर अब राज्य नहीं रहा बल्कि यूनियन टेरिटरी बन गया है, ये भी अपने आप में पहला उदाहरण है. अब तक देश में केंद्र शासित राज्यों क पूर्ण राज बनते तो आपने देखा और सुना था लेकिन एक पूर्ण राज्य केंद्र शासित राज्य बन गया, ऐसा सिर्फ मोदी जी के राज में ही मुमकिन था, लद्दाख को कश्मीर से अलग कर दिया गया. धारा 370 हट चुकी है, पिछले एक दशक में जम्मू कश्मीर में बहुत बदल चूका है, नया परिसीमन भी हो चूका है. मोदी जी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने जम्मू कश्मीर को लेकर बहुत से सपने दिखाए थे, अब इस चुनाव में उन सपनो की अग्नि परीक्षा होगी। नतीजे बताएँगे कि मोदी जी के सपने कितने पूरे हुए, कश्मीरियों की ज़िन्दगी कितनी बदली, कश्मीरी पंडितों को कितना इन्साफ मिला। चुनाव नतीजे बताएँगे कि मोदी जी ने दावों को हकीकत में कितना बदला। परीक्षा सिर्फ भाजपा और मोदी सरकार की ही नहीं बल्कि विपक्ष की भी है, खासकर उन क्षेत्रीय दलों की जिन्होंने कश्मीर में बरसों सरकार चलाई, परीक्षा कांग्रेस पार्टी और राहुल गाँधी की भी है जिन्होंने भारत जोड़ो यात्रा से लेकर अबतक कश्मीर को अपने चुनावी एजेंडे में रखा, कश्मीर से लगातार जुड़े रहे.

भाजपा चुनाव में अकेले मैदान में उतरी है हालाँकि जम्मू कश्मीर से पूर्ण राज्य का दर्जा छीनने और उसे केंद्र शासित राज्य बनाने के बाद से भाजपा ने इस टेरर प्रोन राज्य में अपनी मदद के लिए कई छोटी क्षेत्रीय पार्टियों को खड़ा किया उन्हें पाला पोसा, ये सोचकर कि आने वाले समय में ये पार्टियां चुनाव में उसकी मदद करेंगी, इसके बावजूद भी वो चुनाव में अकेले उतरी है, शायद उसे इन पार्टियों पर भरोसा कायम नहीं हो सका. बहरहाल तमाम अंदुरनी बवालों और विद्रोहों के बावजूद भाजपा ने अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं और कई बड़े नेताओं को चुनावी मैदान से किनारे कर दिया है. अब ये कद्दावर नेता चुनाव में पार्टी के लिए कितनी बड़ी समस्या बनेंगे ये तो आने वाला समय ही बताएगा, फिलहाल कई सूचियां बदलने के बाद भी पार्टी इन नेताओं को एडजस्ट नहीं कर सकी है और दूसरी पार्टियों से आयतित नेताओं के सहारे ही कश्मीर में अपने दम पर सरकार बनाने की कोशिश में लगी हुई है. उसके लिए जम्मू कश्मीर की राह कठिन तो है मगर उसे भरोसा है कि LG उनके काफी काम आ सकते हैं क्योंकि केंद्र ने LG की शक्तियों में बड़ा इज़ाफ़ा कर दिया है. आप ऐसा मानकर चलिए कि जैसा रुतबा दिल्ली में LG का है वैसा ही रुतबा अब जम्मू कश्मीर के LG का रहेगा। मतलब अगर भाजपा की सरकार न भी बनी तब भी जम्मू कश्मीर में LG के इशारे पर ही सबकुछ होगा, ये अलग बात होगी की इस केंद्र शासित प्रदेश में अब सरकार नाम की भी कोई चीज़ होगी और एक मुख्यमंत्री भी होगा।

इतना सबकुछ होने और जानने के बाद भी ये विधानसभा चुनाव नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के लिए तो बहुत अहम् हैं, उनके शीर्ष नेतृत्व के लिए वजूद के लिए भी बहुत अहम् हैं. सभी जानते हैं कि कश्मीर की सियासत में अब्दुल्ला फैमिली और मुफ़्ती फैमिली की क्या भूमिका रही है. जम्मू कश्मीर में काफी लम्बे अरसे तक अब्दुल्ला परिवार का राज रहा, कांग्रेस पार्टी ने भी कई बार सरकार बनाई, इसके बाद पीडीपी का उदय हुआ और उसने नेशनल कान्फेरेन्स को टक्कट दी। पिछले चुनाव में तो वो सबसे बड़ी पार्टी भी रही, मुफ़्ती सईद के नेतृत्व में सरकार भी बनी है. जम्मू कश्मीर में अंतिम सरकार पीडीपी और बीजेपी के सहयोग से कुछ महीने चली थी और फिर उसके बाद जम्मू कश्मीर में बहुत कुछ बदल गया. कभी सत्ता के शिखर में बैठने वाले उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती जैसे नेता कई साल नज़रबंदी में रहे. अवाम से उनका राब्ता राब्ता ख़त्म कर दिया गया, पार्टियां आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर हो गयीं और कभी बुलंद आवाज़ में उभरने वाली आवाज़ों की गूँज भी धीमी पड़ गयी.

खैर चुनाव में पीडीपी जहाँ भाजपा की तरह अकेले चुनाव लड़ रही है वहीँ नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस पार्टी एकसाथ आये हैं, हालाँकि कई सीटों पर वो आपस में टकरा रहे हैं और उसे दोस्ताना मुकाबले का नाम दिया है। अब ये दोस्ताना मुकाबला भी भारतीय राजनीती में बोला जाने वाला एक शब्द है जिसका सही मतलब ये है कि दोस्त होते हुए हम दोस्त नहीं हैं, ज़रुरत पड़ी तो आमने -सामने जायेंगे। वैसे दोनों पार्टियां इस दोस्ताना मुकाबलों को इस तरह से ले रही हैं कि जिन पांच या छह सीटों पर कथित रूप से दोस्ताना मुकाबला है वहां दरअसल कांग्रेस और नेशनल कान्फेरेन्स काफी मज़बूत हैं और जीत भी इन्हीं दोनों पार्टियों की ही होगी, ऐसा इन पार्टियों का मानना है। खैर दिल को बहलाने के लिए ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है. जम्मू कश्मीर का चुनाव पूरी तरह से त्रिकोणीय है बल्कि कई सीटों पर चतुष्कोणीय है क्योंकि प्रतिबंधित जमाते इस्लामी ने भी आज़ाद उम्मीदवार के रूप में अपने कैंडिडेट खड़े किये हैं. जमाते इस्लामी को इस चुनाव में काफी गंभीरता से लिया जा रहा है, कहा जा रहा है कि ये एक शुभ संकेत है क्योंकि जमाते इस्लामी को चुनाव में विशवास नहीं है लेकिन अब वो विशवास जता रही है। जमात के इस कदम को लोकतंत्र की जीत बताया जा रहा है.

बात अगर नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की करें तो 2014 का लोकसभा चुनाव कई दलों के लिए वास्तविकता की परीक्षा साबित हुआ और कांग्रेस-एनसी गठबंधन भी इससे अछूता नहीं रहा। दोनों दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा, लेकिन राज्य में उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। इसके तुरंत बाद उनका गठबंधन टूट गया। पार्टियों ने 2014 का विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा और 2017 में फिर से हाथ मिला लिया, जब कांग्रेस ने श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव में फारूक का समर्थन किया। दोनों दल फिर से एक साथ आए और 2019 के लोकसभा चुनाव में एक रणनीतिक गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा। कांग्रेस ने जम्मू की दो सीटों पर चुनाव लड़ा और बारामुल्ला और अनंतनाग में एनसी के साथ दोस्ताना मुकाबला किया। कांग्रेस ने श्रीनगर में फारूक के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारा। दोनों दलों ने हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में भी गठबंधन किया था। उन्होंने तीन-तीन सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें एनसी को दो सीट पर कामयाबी हासिल हुई थी जबकि कांग्रेस को किसी भी सीट पर सफलता नहीं मिली थी. अब इन दलों के बीच एकबार फिर गठबंधन हुआ और 51 और 32 सीटों पर सहमति बनी है, पांच पर दोस्ताना मुकाबला है और दो सीटें सहयोगी पार्टियों को दी गयी हैं. फिलहाल जम्मू कश्मीर का चुनाव बड़ा दिलचस्प नज़र आता है जिसमें सरकार और विपक्ष दोनों की अग्नि परीक्षा है.

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