रंगमंच पर गढ़े किरदार जो बना गए उनकी पहचान
Zeba Hasan
कहते हैं कलाकार के लिए उसका हर काम प्रिय होता है। लेकिन कर्मभूमि की बिसात पर एक चाल ऐसी भी होती है जो ना सिर्फ दर्शकों के लिए बल्कि खुद कलाकार के लिए भी कालजयी हो जाती है, फिर वह काम चाहे फिल्मी पर्दे पर हो या मंच पर। आज विश्व रंगमंच दिवस (World Theatre Day) है, इस मौके पर हमने रंगमंच के कुछ ऐसे पुराधाओं से बात की जिन्होंने जिंदगी की जद्दोजहद के साथ रंगमंच की डोर को हमेशा मजबूती से थामे रखा। रंगमंच के साथ जुड़ी उनकी जिंदगी में एक ऐसा सफा है जिस पर नाटक के रूप में कालजयी रचना रची है।
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अनुपम खेर को मिला था ‘यहूदी’ का रोल
फिल्म, थिएटर और टीवी आर्टिस्ट डॉ अनिल रस्तोगी (Dr. Anil Rastogi) किसी परिचय के मोहताज नहीं है। बतौर साइंटिस्ट नौकरी के साथ-साथ डॉ अनिल ने रंगमंच में कई यादगार किरदार निभाए हैं। लेकिन जब बात उनके उस नाटक की हुई जो उनकी पहचान के साथ उनके दिल के करीब है तो डॉ अनिल की जुबान पर जो नाम आता है वह है यहूदी की लड़की। डॉ अनिल रस्तोगी कहते हैं कि मैंने अब तक 99 नाटक में काम किया होगा लेकिन जिसे मैं अपने दिल के सबसे करीब मानता हूं वह है यहूदी की लड़की। 1979 में इस नाटक को उर्मिल कुमार थपलियाल के निर्देशन में तैयार इस नाटक में मुझे ब्रूटस का रोल मिला था और अनुपम खेर इसमें मुख्य किरदार निभा रहे थे। करीब 15 दिन उन्होंने रिहर्सल भी की थी लेकिन अचानक उन्हें मुम्बई जाना पड़ा और वह रोल मुझे मिल गया। इसके अब तक 65 शोज हो चुके हैं और 2012 में जब भारत भवन भोपाल में हमने यह नाटक किया था तो मुझे स्क्रिप्ट भी देखने की जरूरत नहीं पड़ी थी। मैं इस नाटक को मंच पर बहुत एंजाय करता हूं। इसकी भाषा, इसके डायलॉग सबकुछ मेरे दिल के बहुत करीब हैं।
एक पल्ले में सारे काम, एक पल्ले में ‘सेंचुरी बड्ढा’
1977 से रंगमंच से जुड़े जितेंद्र मित्तल (Jitendra Mittal) ने मंच पर करीब एक हजार थिएटर शोज किए होंगे। लेकिन साल 2004 में एक बुड्डे के किरदार ने ऐसा सिक्का जमाया कि आज करीब 19 साल पहले का वह बुड्डा रंगमंच की दुनिया में जवान है। 2004 में नाटक सेंचुरी बुड्ढा जितेंद्र मित्तल की पहचान बन चुका है। इस नाटक के अब तक 89 शोज हो चुके हैं और इस सेंचुरी बुड्डा की सेंचुरी होना अभी बाकी है। जितेंद्र कहते हैं कि यह बिलकुल सच है कि कलाकार के लिए उसका हर काम दिलअजीज होता है लेकिन कोई एक ऐसा भी होता है जिसे हमेशा लोग याद करते हैं और खुद कलाकार भी। तराजू के एक पल्ले में मैं अपने सारे काम रख दूं और एक पल्ले में सेंचुरी बुड्डा तो यह बुड्डे का पल्ला ही भारी होगा। मेरे रंगमंच की कमाई का सबसे अमूल्य नाटक है सेंचुरी बुड्ढा। मेरी दिली ख्वाहिश थी कि मैं अपने इस नाटक के सौ शोज करूं लेकिन अब हालात ऐसे नहीं रह गए हैं। यह नाटक बहुत महंगा है और अब फंड के नाम पर पांच सौ रुपए भी नहीं देने को कोई तैयार होता है।
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मेरी पहचान है ‘भगवतजुकीयम’
पिछले चालीस साल से रंगमंच में पूरी शिद्दत के साथ काम कर रही रंगकर्मी मृदुला भारद्वाज (Mridula Bhardwaj) अब तक कई नाटकों का हिस्सा रह चुकी हैं। नीपा रंगमंडली की सेकरेट्री का पद संभाल रही मृदुला कहती हैं कि अगर मैं अपने एक नाटक का नाम लूं तो वह है ‘भगवतजुकीयम’। 1991 में सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ के निर्देशन में तैयार इस नाटक का पहला शो हमने नारवे में आयोजित अंतरराष्ट्रीय नाट्य महोत्सव में किया था। उसके बाद फिरलैंड, कनाडा,नाट डेनमार्क के साथ देश के कई बड़े नाट्य महोत्सवों में इसके शोज किए हैं। आज भी हम इस नाटक को करते हैं जो हम कलाकारों के साथ हमारी संस्था की पहचान भी बन चुका है। इसमें पहले में सखी का किरदार करती थी और अब मां का रोल प्ले करती हूं।