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शाही ईदगाह विवाद मामले में हाईकोर्ट ने दिया मुस्लिम पक्ष को झटका

mathura

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मुस्लिम पक्ष की याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा कि मथुरा के शाही ईदगाह विवाद मामले में हिंदू पक्ष की ओर से दायर दीवानी मुकदमा विचारणीय है। गुरुवार को न्यायमूर्ति मयंक कुमार जैन की एकल पीठ ने कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले में लंबित 18 दीवानी मुकदमों की पोषणीयता पर फैसला सुनाया। ईदगाह कमेटी ने घोषणा की कि वे हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे।

बता दें कि मुस्लिम पक्ष की ओर से सभी दीवानी मुकदमों की पोषणीयता को लेकर दायर याचिका पर कोर्ट ने कई दिनों तक लंबी सुनवाई की। इसके बाद पिछले जून में फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। हिंदू पक्ष की ओर से दायर दीवानी मुकदमों में शाही ईदगाह मस्जिद के ढांचे को हटाने, जमीन का कब्जा सौंपने और मंदिर के पुनर्निर्माण की मांग की गई थी। याचिकाओं के माध्यम से दावा किया गया है कि मुगल बादशाह औरंगजेब के समय की शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण भगवान कृष्ण के जन्मस्थान पर बने मंदिर को कथित तौर पर ध्वस्त करके किया गया था। इसलिए हिंदुओं को उस विवादित स्थल पर पूजा करने का अधिकार है। वहीं, वादी पक्ष की कानूनी स्थिति पर सवाल उठाते हुए मुस्लिम पक्ष ने दावा किया कि श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट और शाही ईदगाह समिति के बीच कोई विवाद नहीं है।

उन्होंने दावा किया कि विवाद उठाने वाले पक्षों का जन्मभूमि ट्रस्ट और ईदगाह समिति से कोई संबंध, जुड़ाव या सरोकार नहीं है। इसके अलावा यह भी तर्क दिया गया है कि ईदगाह स्थल वक्फ की संपत्ति है। मस्जिद की स्थापना 15 अगस्त 1947 को हुई थी। अब पूजा के अधिकार अधिनियम के तहत किसी धार्मिक स्थल का स्वरूप नहीं बदला जा सकता। हिंदू पक्षकारों की दलील थी कि ईदगाह का पूरा ढाई एकड़ क्षेत्र भगवान कृष्ण का पवित्र स्थल है और शाही ईदगाह मस्जिद कमेटी के पास इस जमीन का कोई रिकॉर्ड नहीं है। उनका दावा है कि शाही ईदगाह मस्जिद का निर्माण श्री कृष्ण मंदिर को तोड़कर किया गया है। इसके अलावा मालिकाना हक के बिना ही वक्फ बोर्ड ने बिना किसी वैध प्रक्रिया के इस जमीन को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया है। हालांकि मुस्लिम पक्ष का तर्क है कि इस जमीन को लेकर 1968 में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ था। 60 साल बाद समझौते को गलत कहना सही नहीं है। इसलिए मामला सुनवाई योग्य नहीं है। उनका यह भी दावा है कि पूजा स्थल अधिनियम 1991 के तहत भी मामला सुनवाई योग्य नहीं है। धार्मिक स्थल की पहचान और प्रकृति वही रहेगी जो 15 अगस्त 1947 को थी।

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