मौत से ज़िंदगी तक के सफ़र के बारे में जागरूकता फैलाने की मुहिम शुरू की
- हार्ट ट्रांसप्लांट को छोड़कर, हार्ट फेल्योर के अंतिम चरण में जूझ रहे के मरीजों के लिए उम्मीद की किरण जगी है
- अंगदान मानवता की सबसे बड़ी सेवा है और इस नेक काम की महानता के बारे में जागरूकता फैलाई जा रही है
जम्मू: हृदय परिवर्तन से सब कुछ बदल जाता है, और यह कहावत न केवल दार्शनिक रूप से सही है, बल्कि चिकित्सकीय रूप से भी बिल्कुल सही है। हार्ट ट्रांसप्लांट सचमुच हार्ट फेल्योर के अंतिम चरण में जूझ रहे के मरीजों के लिए उम्मीद की किरण है।
अमरेली की रहने वाली 17 साल की एक चुलबुली बालिका के बारे में डॉ. धीरेन (Dr Dhiren Shah) बताते हैं कि, वह कोविड वायरल मायोकार्डिटिस से पीड़ित थी। फिर उसे हार्ट फेल्योर की समस्या से जूझना पड़ा और उसका दिल केवल 15% ही काम कर रहा था। वह लगभग 5 महीने तक अस्पताल में थी और उसके जीने की उम्मीद न के बराबर थी, क्योंकि किसी भी तरह के चिकित्सा उपचार का उसकी सेहत पर कोई असर नहीं हो रहा था। हार्ट ट्रांसप्लांट इन उसके जीवित रहने का इकलौता संभावित विकल्प था। ट्रांसप्लांट की प्रक्रिया पूरी होने के बाद, उसे 14वें दिन अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। फिलहाल ट्रांसप्लांट के डेढ़ साल बाद, वह डांस करती है, खेलती है और यहां तक कि उसने अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जाना भी शुरू कर दिया है और अपनी ज़िंदगी का आनंद ले रही है। यह सच में किसी भी डॉक्टर के लिए सबसे संतोषजनक ‘हृदय परिवर्तन’ है।
यह केवल इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि एक ब्रेन-डेड मरीज के परिवार ने निःस्वार्थ भाव से अपने प्रियजन के अंगों को दान करने का फैसला लिया। इस ट्रांसप्लांट के लिए 21 साल के एक युवक ने अंगदान किया, जिसे एक सड़क दुर्घटना में मस्तिष्क में गंभीर चोटें आई थी और वह जीवित नहीं बच सका। उनके शरीर के दूसरे सभी महत्वपूर्ण अंग सामान्य रूप से काम कर रहे थे और उनके परिवार के सदस्यों ने उनके दिल, किडनी, लिवर, आंखें और एक जोड़ी हाथ दान करने का फैसला लिया, जिससे आठ मरीजों को नई ज़िंदगी मिली। गौरतलब है कि इन अंगों के अलावा पेन्क्रियाज, छोटी आंत और त्वचा को भी दान किया जा सकता है। अंग दान के उम्र की कोई सीमा नहीं है, क्योंकि कुछ दिन के बच्चे से लेकर 100 साल की आयु तक का कोई भी व्यक्ति संभावित रूप से अंग दान कर सकता है, जो उनके अंगों की स्थिति पर निर्भर करता है।
मारेंगो सीआईएमएस हॉस्पिटल में कार्डियो-थोरेसिक एंड वैस्कुलर सर्जरी विभाग के डायरेक्टर एवं कंसल्टेंट, हार्ट एंड लंग्स ट्रांसप्लांट प्रोग्राम के डायरेक्टर, मैकेनिकल सर्कुलेटरी सपोर्ट प्रोग्राम के डायरेक्टर, डॉ. धीरेन शाह कहते हैं, “हार्ट ट्रांसप्लांटेशन मौजूदा दौर में कोई प्रायोगिक प्रक्रिया (या परीक्षा के लिए गैर-महत्वपूर्ण विषय) नहीं रह गई है। अब तो यह दिल की बीमारियों के अंतिम चरण से जूझ रहे मरीजों के उपचार की सबसे पसंदीदा विधि बन गई है। यह हार्ट फेल्योर के कारण बिस्तर पर पड़े और मरणासन्न रूप से बीमार मरीजों के जीवन की गुणवत्ता में नाटकीय बदलाव लाता है। अब तक मैंने 44 मरीजों का हार्ट ट्रांसप्लांट किया है, और मैंने इस बात को सच साबित होते हुए देखा है और प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया है।”
ब्रेन-डेड की स्थिति से वापस लौट पाना नामुमकिन है, जो दिमाग़ पर गहरी चोट लगने की वजह से होता है। इसका सबसे सामान्य कारण या तो आकस्मिक चोट लगना, या ब्रेन हेमरेज अथवा स्ट्रोक है। आमतौर पर इस तरह के सारे मरीज़ वेंटिलेटर पर होते हैं और सपोर्ट सिस्टम के बगैर साँस भी नहीं ले सकते हैं। उनके शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के कामकाज को कृत्रिम सहायता प्रणाली द्वारा बनाए रखा जाता है, इसलिए ऐसे मरीज अंग दान कर सकते हैं। यह स्थिति कोमा से अलग है, जो दिमाग़ पर चोट के कारण गहरी बेहोशी की स्थिति होती है। ऐसे मरीजों का दिमाग़ काम कर रहा होता है और वे बिना वेंटिलेटर के अपने दम पर साँस ले सकते हैं और उनके मस्तिष्क के ठीक होने की संभावना बनी रहती है। इसलिए ऐसे मरीज अंगदान नहीं कर सकते। कैंसर से पीड़ित और किसी संक्रमण के कारण गंभीर बीमारी से पीड़ित मरीज भी अंग दान नहीं कर सकते हैं।
डॉ. धीरेन शाह इस प्रक्रिया के बारे में समझाते हुए कहते हैं कि, “जब हमें लगता है कि मरीज ब्रेन-डेड हो गया है, तो इस बात की पुष्टि के लिए न्यूरोसर्जन या फिजिशियन विभिन्न प्रकार की जाँच करते हैं, और अंत में एपनिया टेस्ट करने के बाद ही मरीज को ब्रेन-डेड घोषित किया जाता है। इसके बाद चार डॉक्टरों का पैनल, जिसमें एक न्यूरोसर्जन/फिजिशियन, इंटेंसिविस्ट, एनेस्थेटिस्ट, मेडिकल ऑफिसर और/या एक पंजीकृत मेडिकल ऑफिसर शामिल हो सकते हैं, मरीज पर दो एपनिया टेस्ट करने के बाद ब्रेन-डेड को प्रमाणित कर सकते हैं। फिर अस्पताल की ओर से इस संभावित अंग दाता के बारे में SOTTO को सूचना दी जाती है। SOTTO एक सरकारी संस्था है, जिसके द्वारा सरकार की सूची में प्रतीक्षा सूची के अनुसार अंगों का आवंटन किया जाता है। मरीज को ब्रेन-डेड घोषित किए जाने के 24 से 48 घंटों के भीतर अंगों को प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
अंगदान करने वाले जीवित लोगों के माध्यम से मरीज की जान बचाना भी एक दूसरा तरीका है, जो सामान्य तौर पर भारत में काफी प्रचलित है। इस प्रक्रिया में जीवित करीबी रिश्तेदारों में से कोई भी अपने सहोदर रिश्तेदारों को अपनी एक किडनी या लिवर का कुछ हिस्सा दान कर सकते हैं। किसी भी दूसरे ऑपरेशन की तरह, इस प्रक्रिया में भी ऑपरेशन थिएटर में अंगों को निकाला जाता है। अंग निकालने के बाद शरीर के आकार-प्रकार में किसी तरह की खराबी नहीं आती है। अंगदान करने वाले व्यक्ति से अंग प्राप्त करने के बाद, निर्धारित समय-सीमा के भीतर मरीज को ठीक करने के लिए उस अंग का उपयोग किया जा सकता है। हृदय के लिए यह समय-सीमा 4 घंटे, फेफड़ों के लिए 5 से 6 घंटे, लिवर, पेन्क्रियाज और छोटी आंत के लिए 12 घंटे, तथा किडनी के लिए 24 घंटे है।
अंगदान के उपहार से, हार्ट फेल्योर, किडनी फेल्योर या लिवर फेल्योर से पीड़ित मरीजों को एक दशक या उससे भी अधिक वर्षों तक सामान्य एवं सुखद ज़िंदगी बिताने का अवसर मिल सकता है, जो शायद ट्रांसप्लांट के बगैर 3 से 5 साल तक भी जीवित नहीं रह पाते। अंगदान मानवता की भलाई के लिए किया गया सबसे बड़ा काम है।
“मौत के बाद शरीर को जलाने या दफनाने से कहीं बेहतर है कि, उसके हृदय को हार्ट ट्रांसप्लांट के उपयोग में लाया जाए और किसी मरीज की जान बचाई जाए।” — डॉ. क्रिश्चियन बर्नार्ड