तौक़ीर सिद्दीक़ी
हरियाणा की हार से कांग्रेस नेता राहुल गाँधी बहुत परेशान हैं, हार के बाद बहुत कम बोल रहे हैं, मगर जितना भी बोल रहे हैं उसमें दर्द है पीड़ा है. एक जीत जो यकीनी थी कैसे हार में बदल गयी इसकी वजह उन्हें मिल चुकी है यही वजह है कि जब हरियाणा की हार की समीक्षा के लिए मल्लिकार्जुन खरगे के घर पर बुलाई गयी बैठक में दूसरे बहुत से नेता EVM को निशाना बना रहे थे तब राहुल गाँधी खामोश थे, EVM की बातें सुनकर वो थोड़ा परेशान भी हो गए क्योंकि राहुल गाँधी जानते थे कि इसमें EVM से कहीं ज़्यादा दोष उनके अपनों का था. बैठक में राहुल गाँधी इतना ही बोले कि हरियाणा के नेताओं के हित पार्टी पर भारी पड़ गए। राहुल गाँधी बैठक छोड़कर चले भी गए, शायद वो नहीं चाहते थे कि EVM EVM चिल्लाकर हार की असल वजह से आँखें मूँदीं जांय। राहुल का कहना सही भी है कि नेताओं की आपसी खुन्नस ने पार्टी का बेड़ा गर्क कर दिया और ये कोई पहली बार नहीं हुआ है. ये मध्य प्रदेश में हुआ, यही राजस्थान में हुआ , यही छत्तीसगढ़ में हुआ और अब यही हरियाणा में हुआ. अगर राजस्थान को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में कांग्रेस की जीत यकीनी मानी जा रही थी लेकिन नेताओं की आपसी लड़ाई ने कांग्रेस को कम से कम तीन राज्यों में सत्ता से दूर कर दिया।
सवाल ये है कि जब एक के बाद एक राज्यों में कांग्रेस पार्टी के साथ विधानसभा चुनावों में एक ही जैसी दुर्घटनाये हो रही हैं तो फिर कांग्रेस पार्टी आखिर सबक क्यों नहीं सीखती। आखिर राज्य के क्षत्रपों के आगे पार्टी आलाकमान बार बार नतमस्तक क्यों हो रहा है और इसका उसे कोई फायदा भी नहीं मिल रहा है. राजस्थान में गेहलोत और सचिन पायलट का टकराव ले डूबा हालाँकि गेहलोत को खुली छूट दी गयी, ये भी कह सकते हैं कि गेहलोत ने आलाकमान की परवाह नहीं की. कांग्रेस गेहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर राजस्थान को सचिन पायलट के हवाले करना चाहती थी लेकिन गेहलोत ने साफ़ इंकार कर दिया, वो सचिन पायलट को राजस्थान में मज़बूत होते हुए बिलकुल नहीं देखना चाहते थे. विधानसभा चुनाव में अपनी मनमर्ज़ी चलाई लेकिन इन सबके बावजूद चुनाव नहीं जिता सके. इसी तरह मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने दिल्ली की एक नहीं सुनी, आलाकमान कहता रहा कि समाजवादी पार्टी को एडजस्ट कर लो लेकिन कमलनाथ ने तो खुद को मुख्यमंत्री मान लिया था. जीत के बारे में वो ओवर कॉन्फिडेंस थे. छोड़िये अखिलेश वखिलेश को, उनका ये जुमला खूब चर्चित हुआ. जब नतीजे आये तो कांग्रेस का दूर दूर तक पता नहीं था.
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल अपनी हनक दिखा रहे थे, दिखाते भी क्यों न, पार्टी छत्तीसगढ़ मॉडल पर पूरा चुनाव लड़ रही थी, प्रियंका गाँधी के चुनावी भाषणों में छत्तीसगढ़ मॉडल का खास ज़िक्र होता था, ऐसे में भूपेश बघेल के दिमाग़ अगर खराब हुए तो इसमें उनकी क्या गलती। उन्होंने भी खूब मनमर्ज़ी की, अपने समकक्ष नेताओं को कोई भाव नहीं दिया क्योंकि उन्हें उनकी कोई ज़रुरत ही नहीं थी जैसा भूपिंदर हुड्डा को हरियाणा में किसी और नेता की ज़रुरत नहीं थी, अंजाम वही हुआ, कांग्रेस का विकास मॉडल छत्तीसगढ़ भी उनके हाथ से निकल गया, हरियाणा की तरह. छत्तीसगढ़ के लिए भी सभी एग्जिट पोल हरियाणा की तरह कांग्रेस को जिता रहे थे. तो एक के बाद ये चौथा राज्य है जहाँ उसे उसी के क्षत्रपों के कारण हार का सामना करना पड़ा. कहीं पर दो नेताओं की प्रेस्टीज आपस में टकराई तो कहीं पर राज्य के क्षत्रप ने खुद को दिल्ली से बड़ा समझ लिया और निर्देशों को दरकिनार किया।
राहुल गाँधी ने अमेरिका जाने पहले हरियाणा के नेताओं से कहा था कि आम आदमी पार्टी से गठबंधन की बात को आपस में बातचीत से सुलझा लीजिये लेकिन राहुल चले गए अमरीका और इधर अतिआत्मविश्वास से लबरेज़ हरियाणा के नेताओं ने AAP को किनारे कर दिया। कहा गया कि जब हम आसानी से जीत रहे हैं तो फिर किसी और को हरियाणा में पैर क्यों पसारने दें. इन्हीं नेताओं ने लोकसभा में आम आदमी के साथ सीट शेयरिंग पर कोई ऐतराज़ नहीं किया था क्योंकि उसमें उनका हित शामिल नहीं था. आम आदमी पार्टी ने एक सीट पर चुनाव लड़ा, उसे कामयाबी भले ही नहीं मिली लेकिन कांग्रेस को पांच सीटें ज़रूर मिल गयीं, यानि 9 में पांच। देखा जाय तो पचास प्रतिशत या उससे ज़्यादा। अगर यही गठबंधन विधानसभा चुनाव में भी हो गया होता और अगर लोकसभा जैसा ही नतीजा आता तब भी कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार बन सकती थी, AAP सिर्फ सात सीटें ही तो मांग रही थी.
खैर इस पर अब बहुत ज़्यादा बात करना बेकार है जो हो गया वो हो गया. अब जो आगे हो सकता है कांग्रेस पार्टी को उसपर बात करना चाहिए। राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो, छत्तीसगढ़ हो या अब हरियाणा हो. इन सभी राज्यों के चुनाव में अब कई साल हैं, लोकसभा चुनाव भी अब 2029 में है ऐसे में कांग्रेस पार्टी के पास इन राज्यों में नया नेतृत्व खड़ा करने का पूरा समय है. जैसा मध्य प्रदेश में कमलनाथ के साथ किया वैसा ही गेहलोत, भूपेश बघेल, हुड्डा और शैलजा के साथ करना चाहिए। अभी से राज्यों की इकाई को स्पष्ट सन्देश दे देना चाहिए कि राजस्थान में अगला चुनाव सचिन पायलट के नेतृत्व में लड़ा जायेगा, इसी तरह छत्तीसगढ़ और हरियाणा के बारे में जिस चेहरे को कांग्रेस पार्टी लाना चाहती है सामने लाये, confusion बिलकुल ख़त्म कर देना चाहिए। ये पुराने धुरंधर अगर अपना रास्ता अलग करना चाहते हैं तो उन्हें करने दीजिये। आपके पास समय है इन नेताओं की भरपाई करने के लिए. कांग्रेस को नहीं भूलना चाहिए कि वो एक राष्ट्रीय पार्टी है, राज्य के नेतृत्व को अगर बेलगाम छोड़ देगी तो बार बार इसी तरह के नतीजे आते रहेंगे। कांग्रेस को ये भी याद रखना चाहिए कि गेहलोत और हुड्डा जैसे क्षत्रप आसानी से किसी और के लिए रास्ता छोड़ने वाले नहीं। ये लोग अपनी पारियां खेल चुके हैं लेकिन सत्ता का मोह इनसे कभी नहीं छूटेगा, इनसे सत्ता का मोह छुड़वाना पड़ेगा और इसके लिए कांग्रेस आलाकमान को सख्त फैसले लेने पड़ेंगे। इन दिनों कांग्रेस में एक नया नारा चल रहा है कि ये नए ज़माने की कांग्रेस है तो देखने वाली बात ये होगी कि क्या इस नई कांग्रेस में इन मठाधीशों के खिलाफ एक्शन लेने का दम है?