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जितना आसान दिख रहा उतना है नहीं वोडाफोन आइडिया का जिंदा रहना

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जितना आसान  दिख रहा उतना है  नहीं  वोडाफोन आइडिया का जिंदा रहना

अमित बिश्‍नोई

  • उनको एजीआर 20-22 हजार करोड़ रुपये सालाना सरकार को देना है
  • पैसा जुटाने के लिए वोडाफोन आइडिया ने बोर्ड मीटिंग बुलाई है

टेलीकॉम कंपनियां एजीआर चुकाने को लेकर परेशान है. एक कंपनी का तो जिंदा रहना भी मुश्किल हो गया है. दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने एजीआर के मुद्दे पर टेलीकॉम कंपनियों को बकाया राशि चुकाने के लिए 10 साल दिए हैं. सरकार तो 20 साल भी देने को तैयार थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का रुख देखते हुए कंपनियों ने 15 साल मांगे थे.हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने न सरकार की सुनी और न ही कंपनियों की और 10 साल में बकाया राशि का भुगतान करने का आदेश दे दिया.

भले ही एजीआर एक जटिल मुद्दा है, आगे चलकर इसका खामिजाया हम ग्राहकों को ही भुगतना पड़ेगा. जैसे-जैसे आप फैसले की एनालिसिस करेंगे आपको पता लगेगा अब मोबाइल पर बात करना और महंगा हो जाएगा. यह तकरीबन 27 परसेंट तक महंगा हो सकता है.गौरतलब है कि टेलिकॉम ऑपरेटर्स ने चार सालों बाद पिछले साल दिसंबर में प्लान्स 40 परसेंट तक महंगे किए थे. इससे 20 परसेंट तक कंपनियों की कमाई बढ़ गई थी. ब्रोकरेज फर्म जेफेराइज के मुताबिक एयरटेल अपने एवरेज रेवेन्यू प्रित यूजर को 10 परसेंट और वोडाफोन आइडिया 27 परसेंट तक बढ़ा सकती है.

एजीआर है क्या जिससे खड़ी हुई मुसीबत?
एजीआर को कहा जाता है एडजस्टेड ग्रॉस रेवेन्यू. यह सरकार और टेलीकॉम कंपनियों के बीच का फी-शेयरिंग मॉडल है. 1999 में इसे फिक्स लाइसेंस फी मॉडल से रेवेन्यू शेयरिंग फी मॉडल बनाया था. टेलीकॉम कंपनियों को अपनी कुल कमाई का एक हिस्सा सरकार के साथ शेयर करना होता है.

जितना आसान  दिख रहा उतना है  नहीं  वोडाफोन आइडिया का जिंदा रहना

क्या एजीआर पर फैसले से राहत मिली?
टेलीकॉम एक्सपट्र्स के मुताबिक, बिल्कुल भी राहत नहीं है, अगर कुदरत का करिश्मा हो जाए तो वो अलग बात है, लेकिन ये साफ दिख रहा है कि वोडाफोन आइडिया का जिंदा रहना मुश्किल हो गया है, क्योंकि उनके पास पैसे नहीं हैं. उन्होंने बोर्ड मीटिंग बुलाई है, बोर्ड मीटिंग में वो सोच रहे हैं कि किस तरीके से 20-25 हजार करोड़ रुपये कहीं से उठा पाए . मगर मुश्किल है ये कि कौन उसमें निवेश करेगा. उनको 20-22 हजार करोड़ रुपये सालाना सरकार को देना है.पुराने स्पेक्ट्रम के पैसे, एजीआर के बकाया, उनके पास पैसे हैं नहीं, तो जो भी नया इंसान आएगा उसे सरकार को 20 हजार करोड़ रुपये देने पड़ेंगे. 1-1.5 लाख करोड़ की लायबिलिटी हो जाएगी.

पेनल्टी और ब्याज छोड़ना चाहिए था
पिछले साल जब सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिया कि ये एजीआर की परिभाषा है, तो ये पहला परिभाषा देने वाला फैसला था. पहली गलती ये हुई है कि पेनल्टी और ब्याज लेने की कोशिश की जा रही है

आप कैलकुलेशन भी नहीं देख सकते
आपको या मुझे किसी टैक्स अधिकारी ने टैक्स की डिमांड दे दी, उसने कहा कि 2007 में आपकी ये आमदनी है, तो आपको ये टैक्स देना है, 10 फीसदी ब्याज पर ये पेनल्टी दीजिए, अगर पेनल्टी के कैलकुलेशन में गलती हो गई तो कैलकुलेशन को हम चैलेंज कर सकते हैं, तो टेलीकॉम कंपनियों ने भारत सरकार को कहा कि कैलकुलेशन गलत है. अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आप कैलकुलेशन को भी नहीं देख सकते.

नीतिगत फैसले में कोर्ट का आना
सुप्रीम कोर्ट का दस साल का फैसला नीतिगत रूप से लिया हुआ लगता है. कोर्ट का हमेशा से रवैया रहा है कि पॉलिसी के फैसले में हम नहीं आएंगे. अगर कैबिनेट ने फैसला ले लिया की 20 साल का वक्त देंगे तो सुप्रीम कोर्ट को इसके बीच नहीं आना चाहिए.

स्पेक्ट्रम नीलामी के बाद लाइसेंस फी और यूसेज चार्ज लेना
ये गलती भारत सरकार की है. 2010 में सरकार ने स्पेक्ट्रम निलामी शुरू की. पहले सरकार स्पेक्ट्रम लगभग फ्री देती थी और रेवेन्यू शेयर देने को कहती थी. कंपनी ईएमआई देते थे. 2010 में नीलामी के बाद रेवेन्यू शून्य हो जाना चाहिए था. 2010 में मनमोहन सरकार ने इस पर फैसला न लेकर गलती की, इसके बाद पीएम मोदी ने वो गलती की.

‘ग्राहक अब जाएंगे कहां?’
इंडस्ट्री ठप होने का बड़ा नुकसान भारत सरकार को ही होगा. सिर्फ दो कंपनियां रहने से टैरिफ बढ़ेगा, सर्विस की गुणवत्ता भी कम हो सकती है. भारत का ये मानना था कि अगर कीमतों को काबू में रखना है तो प्रतिस्पर्धा बढ़ाई जाएगी. बाजार में 5-10 खिलाड़ी हैं तो प्रतिस्पर्धा रहेगी. कीमतें नियंत्रण में रहेंगी. लेकिन इससे प्रतिस्पर्धा बंद हो गई. जो दो कंपनियां बचेंगी जियो और एयरटेल, उससे कंज्यूमर बोझ बढ़ सकता है. वैसे भी अगर सर्विस क्वालिटी खराब भी हो गई तो आप जाएंगे कहां?वैसे भी अगर 52 बिलियन डॉलर पैसे डालने के बाद एक कंपनी बंद हो जाए या बंद होने के कगार पर आ जाए तो ये भारत के लिए सही नहीं होगा.

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