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भागवत के बयान से छिड़ी बहस, कब मिली देश को आज़ादी

आर्टिकल/इंटरव्यूभागवत के बयान से छिड़ी बहस, कब मिली देश को आज़ादी

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अमित बिश्नोई
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास में मोहन भागवत सबसे मुखर सरसंघ चालकों में गिने जाने जाएंगे। वह सार्वजनिक रूप से संघ या उसके राजनैतिक मंच भाजपा के लिए जितना अच्छा हो सकता है, बोलते रहते हैं जिनपर अक्सर विवाद और विरोध भी होता रहता है, कभी यह विरोध सेक्युलर पार्टियों यानि विपक्ष द्वारा होता है और कभी कभी भाजपा से भी दबी ज़बान में होता है. उनका कुछ दिन पहले पब्लिक मंच पर दिया गया एक सार्वजनिक बयान कि भारत को अयोध्या में राम मंदिर के अभिषेक के दिन अपनी “वास्तविक स्वतंत्रता” मिली। उनके इस बयान को स्वतंत्रता आंदोलन का स्पष्ट अपमान माना गया, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन के कारण ही भारत को स्वतंत्रता मिली। भागवत के बयान को लोकसभा में नेता विपक्ष और कांग्रेस लीडर राहुल गांधी ने “देशद्रोह” और हर भारतीय का अपमान बताया और यहाँ तक कह दिया कि किसी और देश में होते तो अबतक गिरफ्तार हो चुके होते। फिलहाल देश में भागवत के बयान पर बहस छिड़ी हुई है. एक वर्ग इस बयान को अशिक्षित दिमाग की पूर्वाग्रही बकवास बता रहा है तो दूसरा वर्ग, जिसकी निश्चित ही संख्या कम है, एक सुधार का संकेत बता रहा है.

इस बयान से कुछ समय पहले ही पुणे में मोहन भागवत ने कहा था कि देश में सांप्रदायिक विभाजन को हवा देकर कोई भी “हिंदुओं का नेता” नहीं बन सकता। उनके इस बयान को दक्षिणपंथी समूहों की प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया. वह समूह विशेष जो देश भर में सदियों पुरानी मस्जिदों की खुदाई करने और उसके नीचे मंदिर के अवशेष ढूंढने की मांग करते हुए हुए अदालतों का रुख लगातार कर रहा है, जिसे निचली अदालतों से मदद भी मिल रही है। वहीँ मोहन भागवत के उस बयान का उदारवादियों ने स्वागत किया, हालाँकि संघ के मुख्य समर्थक इस बयान से भ्रमित हुए और साधू संत नाराज़। कई बड़े संतों ने तो मोहन भागवत को फटकार भी लगाई और उन्हें अपनी सीमा में रहने और धर्म के मामले से दूर रहने को कहा.

देखा जाय मोहन भागवत के बयान के सुलह के लहजे ने वास्तव में उन प्रमुख उद्देश्यों को अमान्य कर दिया जिसके लिए आरएसएस ने विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन का गठन किया था। विहिप के गठन का उद्देश्य “हिंदू समाज को संगठित करना और हिंदू धर्म की रक्षा करना” था। इसका एक और उद्देश्य “हिंदू मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार करना” था। इसे विवादित हिंदू स्थलों को पुनः प्राप्त करने का भी काम भी सौंपा गया था। यह वीएचपी ही थी जिसने राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन का नेतृत्व किया। भागवत का पुणे बयान वीएचपी और उसके सहायक हिंदुत्ववादी संगठनों और भारतीय जनता पार्टी के मुख्य समर्थकों के हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं अपमान था। चुनावी दृष्टि से न तो आरएसएस और न ही भाजपा इन संगठनों को नाराज़ करने का जोखिम उठा सकती है क्योंकि चुनावी लामबंदी के लिए उनकी सबसे बड़ी ज़रूरत है। संघ प्रमुख के पुणे वाले बयान से हिंदुत्व जगत में आई दरार को भरना जरूरी हो गया था तो भागवत ने राम मंदिर के अभिषेक के दिन को देश की असली आज़ादी का दिन बताकर अपने पिछले बयान से हिन्दुओं के वर्ग में पैदा हुई नाराज़गी को पाटने का प्रयास कर दिया। अपने इस बेतुके दावे को तर्कसंगत बनाने के लिए उन्होंने 15 अगस्त, 1947 की घटनाओं को “केवल राजनीतिक स्वतंत्रता” बताया।

तर्क की एक ज़हरीली श्रृंखला ने उन्हें भारत के संविधान पर भी भ्रमित हमला करने के लिए प्रेरित किया। जहाँ तक मोहन भागवत की बात है तो वो न तो कोई बुद्धिजीवी हैं और न ही विचारक, न ही कोई इतिहासकार या समाज विज्ञानी या फिर राजनीतिज्ञ। उनके पास वास्तव में पशुपालन में डिग्री है। आरएसएस में उनका पहला बड़ा काम अखिल भारतीय ‘शारीरिक प्रमुख’ या शारीरिक प्रशिक्षण का प्रभारी था. बौद्धिक व्यायाम के बजाय शारीरिक मांसपेशियों का निर्माण करना था। पारंपरिक रूप से आरएसएस के सरसंघचालक – साल में केवल एक बड़ा सार्वजनिक बयान देते हैं जो नागपुर में आरएसएस मुख्यालय में दशहरा के अवसर पर दिया जाता रहा है लेकिन मोहन भागवत पिछले और अपेक्षाकृत लो प्रोफाइल वाले संघ प्रमुखों की तुलना में हाई प्रोफाइल रखते हैं तो उनके सार्वजानिक बयान भी दशहरे तक सीमित न होकर नियमित हो गए हैं.

भागवत के अधूरे विचारों को जो असंगत प्रचार मिलता है वह इसलिए है क्योंकि वह आरएसएस की राजनीतिक शाखा भाजपा से आते है जो पिछले एक दशक से केंद्र की सत्ता में है। असंगत प्रचार की यही ऑक्सीजन मोहन भागवत को सभी प्रकार के मुद्दों पर विस्तार से बोलने के लिए उकसाती है। उनके बयानों से हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं में चिंता पैदा होती है, जो पाते हैं कि वे उनकी वैचारिक शिक्षा और मान्यताओं के विपरीत संघ प्रमुख सलाह दे रहे हैं। यह तब और भी बढ़ जाता है जब वो अपने अवतार मोदी जी की वह तस्वीर देखते हैं जिसमें वो अपने मंत्री के माध्यम से अजमेर शरीफ में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार पर सम्मानपूर्वक ‘चादर’ पेश करते हैं। वह दरगाह जहाँ पर मंदिर की खोज की जा रही है, मामला अदालत में पहुंच चूका है. फिलहाल तो भागवत के बयान और प्रधानमंत्री मोदी की इन तस्वीरों से हिंदुत्व के मुख्य मतदाता सोच में पड़ सकते हैं कि कौन सी पार्टी ‘अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण’ कर रही है?

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