अमित बिश्नोई
आज कहीं मैंने एक कार्टून देखा और उसका कैप्शन पढ़ा, जिसमें लिखा था बसपा का हाथी सो रहा है. सोचने लगा कि कार्टूनिस्ट ने यह कैप्शन क्यों लिखा क्योंकि मायावती जी तो आजकल बहुत एक्टिव हैं, आभासी दुनिया में भी और वास्तविक जगत में भी. उनकी ओर से अब तो हर क्रिया की तुरंत प्रतिक्रिया भी दिखती है, कभी ट्वीटर पर तो कभी पत्रकार वार्ता में प्रेस नोट पढ़कर। क्योंकि सीधे सवाल जवाब में उन्हें शायद विश्वास नहीं है, बिलकुल मोदी जी की तरह.
किसी चैनल ने उन्हें सत्ता की दौड़ से दूर बताया, बहन जी ने त्वरित प्रतिक्रिया दी, ओपिनियन पोल की बखिया उधेड़कर रख दी, देने लगीं 2007 का हवाला। कांग्रेस पार्टी ने पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ते हुए उन्हें नोटों की बेटी बताया तो बहन जी ने कांग्रेस का पूरा इतिहास-भूगोल ही पत्रकारों के सामने रख दिया। वैसे वह नोटों वाली माला मायावती के जी का जंजाल बन चुकी है, बहन जी पर ऐसा टैग लग गया है जो ज़िन्दगी पर शायद नहीं हटने वाला।
बात फिर से कैप्शन की, तो हमारा मानना है कि हाथी न तो सो रहा है और न ही पूरी तरह से जागा हुआ, कुछ उनींदा सा है. उठने की कोशिश कर रहा है पर आलस उसपर हावी है और फिलहाल वह अलसाई मुद्रा में है. यह बात इसलिए कि अगर आप 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों को देखें तो पाएंगे कि बहुजन समाज पार्टी अन्य मुख्य विपक्षी दलों सपा-रालोद और कांग्रेस के मुकाबले तैयारियों के मामले में काफी धीमी रफ़्तार में है.
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वैसे तो बहुजन समाज पार्टी ने कभी आक्रामक कैम्पेनिंग नहीं की, उसकी तैयारियां हमेशा ज़मीनी सतह पर चलती रहती थीं, अपने परंपरागत वोट बैंक के प्रति पूरी तरह आश्वस्त मायावती अन्य जातीय समीकरणों को साधने में ज़्यादा समय बिताती थीं वह भी बिना ढोल नगाड़े, मीडिया से दूरी बनाकर। 2007 का उनका सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला इसकी सबसे बेहतरीन मिसाल है. लेकिन तबसे से लेकर अब तक देश और प्रदेश की राजनीति काफी बदल चुकी है. जातिवाद पर साम्प्रदायिकता हावी चुकी है. वोट बैंक भी अब बंधुवा मज़दूर नहीं रह गया है. 2017 में सपा से उनका अपना यादव वोट बैंक छिटक गया, नतीजतन उनको अपने गढ़ में भी हार मिली, 2019 के लोकसभा चुनावों में भी यादव वोट सपा में नहीं लौटा, परिणाम यह रहा कि कुनबे वाली पार्टी का आरोप सही साबित हुआ. यही हाल बसपा के साथ भी हुआ, 2017 में दलितों का और पिछड़ों का एक बड़ा हिस्सा उनसे छिटककर भाजपा की गोदी में जा बैठा। 2019 के लोकसभा चुनाव में ज़रूर उनकी वापसी हुई मगर उसमें समाजवादी पार्टी से किये गठबंधन का बड़ा हाथ था जिसने सपा को तो नुक्सान पहुँचाया मगर बसपा और मायावती को संजीवनी दे गया.
इसके बावजूद भी बसपा 2019 का प्रदर्शन दोहरा पायेगी इसमें संशय है. बसपा का कोर वोट जाटव जिसने बुरे से बुरे समय में हाथी को खिलाया पिलाया, इस बार छिटकता हुआ नज़र आ रहा है, कम से कम पश्चिमी यूपी में तो यही होता दिख रहा जहाँ बसपा को काफी समर्थन मिलता रहा है. वहां इसबार जाट और जाटवों का संगम होता दिख रहा है. जाटव समुदाय का मानना है कि जब नौ महीने से दिल्ली की सीमा पर बैठे संगठित जाट समुदाय की सरकार नहीं सुन रही है तो गरीब जाटवों की क्या सुनेगी। शायद सत्ता के करीब फिर से पहुँचने के लिए जाटव समाज एक विनिंग कॉम्बिनेशन की तलाश में है और इसीलिए वह रालोद में अपना भविष्य देख रहा है.
मायावती के लिए चंद्रशेखर आज़ाद भी एक खतरा बनकर उभर रहे हैं, मायावती के साथ वह जा नहीं सकते क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं. भीम आर्मी चीफ अगर सपा गंठबंधन में घुस गए तो मायावती के लिए कोढ़ में खाज वाली स्थिति तो बना ही सकते हैं. मायावती का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अब आम हो चूका है, 2017 में भाजपा ने बसपा से बेहतर तरीके से इस फॉर्मूले को अपनाया। इसबार तो सभी पार्टियां इसी फॉर्मूले को अपनाने की बात कर रही हैं.
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तो ऐसे बड़ा सवाल यह है कि 2007 दोहराने के लिए मायावती के पास क्या कोई नया फार्मूला है. वैसे यह बात मायावती ही बेहतर बता सकती हैं जो वह कभी बताती नहीं। लेकिन सामने जो नज़र आ रहा है उससे तो यही लगता है कि वह फिर अपने पुराने हथियार को आज़माना चाहती हैं, ब्राह्मण सम्मलेन उसकी शुरुआत है. जाति विशेष के वोट बैंक वाली पार्टियों के लिए सबसे बुरा समय तब आता है जब उनका अपना वोट बैंक खिसक जाता है. एक पार्टी के लिए धरातल की तरह होता है वह वोट बैंक, बाक़ी सारे फॉर्मूले तो उसे सत्ता तक पहुंचते हैं.
वैसे यूपी के परिपेक्ष्य में देखा तो जाय तो पार्टी के गठन से लेकर पिछले चुनाव तक गठबंधन की राजनीति का सर्वाधिक फायदा बसपा ने ही उठाया है. हालाँकि इसबार अभी तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ लेकिन कुछ ऐसी छोटी पार्टियां अब भी हैं जो गठबंधन को ललायित हैं, शायद उनसे बहन जी की कुछ बात बन जाय. इसके अलावा मैंने ऊपर एक बात जाट-जाटव संगम की कही है, क्या पता वह संगम किसी और रूप में हो जाय जिसमें मायावती भी नज़र आएं. क्योंकि राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं। लेख का समापन उसी बात को लेकर करूंगा कि अभी बसपा का हाथी भले ही सोता हुआ लग रहा हो मगर महावत (मायावती) ने अगर उसे समय से खड़ा कर दिया तो हाथी की मस्त चाल बहुत गुल खिला सकती है.