ममता बनर्जी के चुनाव जीतने के बाद भड़की हिंसा में हिंदू विस्थापित होने को मजबूर
हिन्दुस्तान में शरणार्थी बने हिंदू, लुटियंस मीडिया और तथाकथित बुद्धजीवी साधे हैं चुप्पी
सुनील शर्मा
पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी के जीतने के चंद घंटों के बाद ही भाजपा को वोट देने वाले हिंदुओं को दंडित करने का सिलसिला शुरू हो गया। हिंसा भड़की तो राज्य में अल्पसंख्यक जैसी स्थिति में आ चुके हिंदुओं को आजाद और लोकतांत्रित भारत में अपनी मर्जी से वोट देने का खामियाजा भुगतना पड़ा। अपने ही देश में वह शरणार्थी कैंपों में रहने को मजबूर हो गये। शर्मनाक बात यह है कि हिंसा से पीड़ित लोग जान बचाने के लिये धर्म परिवर्तन करने को भी तैयार हैं। मगर उनको संशय इस बात का है कि यदि वह हिंदू धर्म छोड़कर मुस्लिम बन भी जायेंगे तो क्या उनकी जान बच जायेगी। अपना सब कुछ खोकर शरणार्थी कैंपों में रहने को मजबूर हिंदू बिलख रहे हैं और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हिंसा के लिये भी हिंदू और भाजपा कार्यकर्ताओं को जिम्मेदार ठहरा रही है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले बुद्धजीवी, नेता और लुटियंस मीडिया भी हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार को नजरअंदाज कर रही है। शायद डर इस बात का है कि कहीं हिंदुओं के हित में आवाज उठाने से उन पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा न लग जाये।
पश्चिम बंगाल के चुनाव के नतीजों के बाद जो घटनाएं देखने और सुनने को मिली हैं उसने देश को हतप्रभ कर दिया। हल्दिया से लेकर आसनसोल, कोलकाता से लेकर सिलीगुड़ी तक में भड़की हिंसा, बीजेपी और टीएमसी कार्यकर्ताओं में भिडंत की खबरों के बीच लोकतंत्र मानों कहीं था ही नहीं। देखते ही देखते अपने ही देश में हिंदुओं को विस्थापित होकर शरथार्णी कैंपों में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा। हिंसा का शिकार महिलाएं और बच्चे भी हुए मगर राज्य सरकार उनकी ओर से भी आंखे फेरे रही। और उनका दोष मात्र इतना ही था कि लोकतांत्रिक देश में उन्होंने अपनी मर्जी से वोट देने का गुनाह किया था। उनकी आने वाली सात पुश्तें तक ऐसा गुनाह फिर न कर पायें इसलिये सजा देना जरूरी था। दमनकारी रवैये को लिये जानी जाती मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इस हिंसा को शांत करने का प्रयास करने की बजाये हिंसा के लिये भाजपा कार्यकर्ताओं को ही जिम्मेदार ठहराती नजर आयीं। वहीं इस मामले में जब राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने दखल दिया तो ममता बनर्जी ने इस बात को भी राजनीतिक मोड़ दे दिया। लेकिन मुख्यमंत्री होने के बावजूद ममता बनर्जी ने हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में शांति कायम करने के लिये सार्थक प्रयास नहीं किये। नतीजा सिर्फ और सिर्फ हिंदुओं को ही भुगतना पड़ा और वह अपने घर छोड़ जान बचाकर भागते नजर आये। हिन्दुस्तान में हिंदुओं के लिये ही शरणार्थी कैंप बनाने पड़े। अपने ही देश में विस्थापित होने का दर्द इन कैंपों में रहने वाले हिंदुओं की आंखों में झलकता है।
दूसरा कश्मीर बनता जा रहा पश्चिम बंगाल में हिंदुओं पर अत्याचार का सिलसिला आज का नहीं है। 2013 में बंगाल में हुए सुनियोजित दंगों में सैकड़ों हिंदुओं के घर और दुकानें लूटे गए, अनेक मंदिरों को तोड़ दिया गया मगर तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकार ने इस ओर से निगाहें फेरी रखी। कार्रवाई न किये जाने से एक वर्ग का हौसला बढ़ता गया जो आज बंगाल हिंसा के रूप में हमारे सामने है। आज पैदा हुई विषम परिस्थितियों में लोग आंतरिक तौर पर विस्थापित हो रहे हैं। हिंदू राज्य में और राज्य के बाहर शरणार्थी कैंपों में रहने को मजबूर हैं। पश्चिम बंगाल में लोगों के इस तरह के पलायन से उनके जीवन के अधिकार, मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है।
दुखदः यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय पर किये अत्याचार के विरोध में मात्र एक ट्वीट से एकजुट हो जाने वाली राजनीतिक पार्टियां भी हिन्दुस्तान में हिंदुओं के ही शरणार्थी बनने पर चुप्पी साधे हुए हैं। वहीं लुटियंस मीडिया की निगाह भी टीकाकरण, मुसलमानों पर अत्याचार, किसानों की मांगों को लेकर केंद्र सरकार को घेरने पर ही जमी हुई है। निःसंदेह उनके निजी स्वार्थ उन पर हावी हैं लेकिन क्या अपने ही देश में हिंदूओं की यह स्थिति उनकी अंतरआत्मा को नहीं धिक्कारती। बात-बात पर अपने अवार्ड सरकार को लौटाने को तैयार बुद्धिजीवी वर्ग के मुंह पर भी हिंदुओं पर किये जा रहे अत्याचार को लेकर ताला लटका हुआ है। उनके मुखारविंद से एक शब्द ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ नहीं निकल रहा। क्या यही है आजाद भारत, क्या इसी लोकतंत्र की कल्पना नेहरू जी से लेकर इंदिरा गांधी तक ने की थी। क्या हिंदुओं के कोई मानवाधिकार नहीं हैं और क्या आजाद हिन्दुस्तान में हिंदुओं को ही आजादी से रहने की इजाजत नहीं है। क्या हिंदुओं की आवाज उठाना ही सांप्रदायिकता है और हर बात के लिये केंद्र को जिम्मेदार ठहरा कर क्या लुटियंस मीडिया अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है।
पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। 2011 की जनगणना के अनुसार पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की आबादी में 1.94 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई थी। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों की आबादी में 0.8 फीसदी की बढ़ोतरी के मुकाबले बंगाल में मुसलमानों की आबादी 1.77 फीसदी की दर से बढ़ी थी। पश्चिम बंगाल में हिंदुओं की जनसंख्या में 10.8 प्रतिशत दशकीय वृद्धि दर की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर दोगुनी यानी 21.8 प्रतिशत है। गौरतलब है कि यह आंकड़े 2011 के हैं और राज्य में रह रहे बांग्लादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी शामिल नहीं हैं।
बंगाल के मुर्शिदाबाद, मालदा और उत्तरी दिनाजपुर में बहुसंख्यक मुसलमानों ने हिन्दुओं को फसाद और दंगे के माध्यम से पलायन के लिए मजबूर किया। इन जिलों में कभी हिंदू बहुसंख्यक होते थे मगर लगातार होती हिंसा और राज्य सरकार से लेकर पुलिस तक में कोई सुनवाई न होने के कारण हिंदूओं ने इन जिलों से पलायन करना ही बेहतर समझा। पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती उपजिलों की बात करें तो 42 क्षेत्रों में से 3 में मुस्लिम 90 प्रतिशत से अधिक संख्या में हैं। 7 में 80-90 प्रतिशत के बीच, 11 में 70-80 प्रतिशत तक, 8 में 60-70 प्रतिशत और 13 क्षेत्रों में मुस्लिमों की जनसंख्या 50-60 प्रतिशत तक हो चुकी है। वर्तमान में भारत-बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाकों से कट्टरपंथियों द्वारा हिन्दुओं को मार-मारकर भगाया जा रहा है।
हिंदू-मुस्लिम की राजनीति को दरकिनार कर हमें यह विचार अवश्य करना चाहिये कि चुनाव के बाद ही पश्चिम बंगाल में हिंसा की घटनाएं क्यों होती हैं। लोकतंत्र पर किये गये हमले पर राज्य सरकार और पुलिस क्यों चुप्पी साधे रहती है। ममता बनर्जी को भी यह समझना चाहिये कि वह किसी वर्ग या धर्म विशेष की नहीं बल्कि पूरे राज्य की मुख्यमंत्री हैं और आने वाले समय में वह विपक्ष का चेहरा भी बन सकती हैं। उन्हें लोकतंत्र को शर्मसार करने वाली राजनीतिक हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी, हत्याओं को रोक कर राजधर्म का पालन करना चाहिये। इस हिंसा के लिये जो भी जिम्मेदार हों उन्हें धर्म के चश्मे से नहीं बल्कि न्याय के चश्मे से देखा जाना चाहिये। उपद्रवी चाहे किसी भी धर्म या पार्टी से ताल्लुक रखते हों उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दिलाकर मिसाल कायम करनी चाहिये। किसी प्रदेश विशेष में हिंदुओं का शरणार्थी की तरह रहना राज्य सरकार के लिये शर्मनाक है। निःसंदेह हिन्दुस्तान में रहने का हिंदुओं को भी उतना ही हक है जितना किसी और धर्म के व्यक्ति का। और कोई राजनीतिक दल, लुटियन मीडिया या तथाकथित बुद्धजीवी उनसे यह हक नहीं छीन सकते।