अमित बिश्नोई
हल्द्वानी डेमोलिशन मामले में देश की शीर्ष अदालत का फैसला आ गया है और आशा के अनुरूप उसने उन 44 हज़ार परिवारों के 50 हज़ार लोगो को बहुत बड़ी राहत दी है जिसमें 8 जनवरी को उनके सिरों से घरों की छत छिन जानी थी. पुलिस और प्रशासन फ़ोर्स और बुलडोज़रों के साथ तैनात खड़ी थी, उसे बस सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतज़ार था. लेकिन अभी इस फ़ोर्स और इन बुलडोज़रों को कुछ और इंतज़ार करना पड़ेगा या फिर लम्बा इंतज़ार करना पड़ेगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने बहुत से सवालों के साथ फैसले के खिलाफ दायर याचिका को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया है.
आज की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने कई ऐसे तीखे सवाल किये जिसके जवाब रेलवे या उत्तराखंड की भाजपा सरकार के पास नहीं थे, शीर्ष अदालत ने सबसे बड़ा सवाल तो मानवीय पहलु का ही उठाया। कैसे कोई इतनी बड़ी आबादी को रातों रात जहाँ पीढ़ियों से लोग रह रहे हों को अपने घरों को छोड़कर जाने को कह सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ तौर पर कहा कि अभी तक यह साफ़ नहीं है कि ये रेलवे की ज़मीन है या फिर उत्तराखंड सरकार की. कोर्ट ने धामी सरकार से भी सवाल किया कि दशकों से लोग यहाँ रह रहे हैं, किसी ने ज़मीन को लीज़ पर लिया है, किसी ने नीलामी में खरीदा है, बहुत से लोगों का कहना है वो देश की आज़ादी से पहले से यहाँ रह रहे हैं, आपने इन लोगो को उजाड़ने से पहले इन्हें बसाने की कोई योजना बनाई है या फिर ऐसे ही घरों को खाली करने का आर्डर सुना दिया है.
सबसे बड़ा सवाल तो यह बस्ती कोई आज की नहीं है. सरकार की तरफ से यहाँ पर रहने वालों के लिए डेवलपमेंट योजनाएं चलाई गयी हैं। पक्की सड़कें हैं, बिजली की व्यवस्था है, शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था है, पानी की व्यवस्था है. किसी अवैध बस्ती में कभी इतनी सरकारी सुविधाएँ नहीं पायी जाती। अगर यह बस्ती अवैध थी तो फिर तीन सरकारी स्कूल वहां पर सरकार ने कैसे बनवाये, कैसे स्वास्थ्य केंद्र बनवाया, कैसे सड़कें बनवाईं, कैसे पानी की टंकी बनवाई, कैसे बिजली की व्यवस्था की गयी, कैसे हाउस टैक्स की वसूली हुई, कैसे वाटर टैक्स वसूला गया और बिजली के बिल लोगों के पास आते हैं. इतना ही नहीं, यहाँ पर 11 मान्यता प्राप्त प्राइवेट स्कूल भी हैं, इस अवैध बस्ती में स्कूल खोलने के लिए उन्हें मान्यता किसने दी. क्या सरकार को मालूम नहीं था कि जब अवैध बस्ती उजड़ेगी तो इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे कहाँ जायेंगे। हकीकत तो यह है कि सरकार तमाशा देख रही है, रेलवे के बहाने वो एक सियासी दांव भी चल रही है, अपने को सीधे तौर पर शामिल न करते हुए भी वह इस खेल में शामिल है क्योंकि इस इलाके की 80 प्रतिशत आबादी अल्पसंख्यक समुदाय की है, यहाँ पर 20 मस्जिदें हैं और सिर्फ दो मंदिर हैं.
बस्ती टूटती है तो उसका राजनीतिक फायदा सीधे तौर पर भाजपा को ही मिलेगा। यहाँ पर रह रहे 50 हज़ार लोग भी बस्ती बिखरने के साथ खुद भी बिखर जायेंगे। इनका बिखरना भाजपा की राजनीती को सूट करता है और शायद इसीलिए उत्तराखंड सरकार हाईकोर्ट के फैसले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट नहीं गयी या फिर बस्ती वालों के साथ कड़ी नज़र नहीं आयी. इससे पहले जब 2013 में इसी तरह की सिचुएशन आयी थी तब कांग्रेस सरकार इन लोगों के साथ खड़ी नज़र आयी थी और इसबार भी खड़ी नज़र आयी. हाई कोर्ट के आसमान टूटने वाले इस फैसले से जब यहाँ की निवासी टूटे हुए नज़र आ रहे थे तब कांग्रेस ने ही आगे आकर यहाँ के निवासियों के साथ मिलकर मामले को सुप्रीम कोर्ट में पहुँचाया जिसकी वजह से आज इन लोगों को बेघर होने से बचने के लिए उम्मीद की एक किरण नज़र आयी है.