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घोसी में कामयाबी, INDIA के लिए अँधेरे में उम्मीद की एक किरण

आर्टिकल/इंटरव्यूघोसी में कामयाबी, INDIA के लिए अँधेरे में उम्मीद की एक किरण

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तौकीर सिद्दीकी

पिछले दिनों सात विधानसभा सीटों के उपचुनाव हुए, इन चुनावों के नतीजों को आज की मीडिया कुछ इस तरह से परिभाषित कर रही है. पहाड़ी राज्यों में फिर चला मोदी मैजिक, चार अन्य में विपक्षी पार्टियों की जीत. यहाँ पर इंडिया नाम के गठबंधन का उल्लेख करने से टीवी और अखबारों ने पूरी तरह से परहेज़ किया. शायद इसीलिए लोग गोदी मीडिया कहते हैं वरना हेडलाइंस इससे उलट नज़र आतीं। कुछ हद तक ये बात सही भी थी , बंगाल में ममता को जीत मिली, केरल में कांग्रेस को जीत हासिल हुई लेकिन झारखण्ड और यूपी के चुनाव में JMM और सपा की जीत ज़रूर हुई मगर वहां पर इंडिया अलायन्स का ही उम्मीदवार भाजपा के मुकाबले में था और इससे भाजपा चाहे जितनी कोशिश कर ले इंकार नहीं कर सकती कि NDA vs INDIA की लड़ाई में पहली बाज़ी विपक्षी गठबंधन ने मारी क्योंकि इन दोनों सीटों पर सही मायनों में गठबंधन ही लड़े भाजपा या सपा नहीं. इसमें भी अगर यूपी की घोसी सीट को देखा जाय तो यह सिर्फ किसी विधानसभा सीट का उपचुनाव मात्र नहीं था, यह सीट प्रधानमंत्री मोदी की प्रतिष्ठा की लड़ाई थी, घोसी सीट उनकी संसदीय सीट से सटा हुआ विधानसभा क्षेत्र भी है. इस उपचुनाव को मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की भी प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जा रहा था जो खुद भी वहां प्रचार करने गए और अपने मंत्रियों की एक सेना को वहां तैनात किया, सरकारी अमले की तो गिनती ही नहीं लेकिन इसके बावजूद करारी शिकस्त मिलना, मोदी मैजिक, चाणक्य नीति और बुलडोज़र बाबा पर सवाल उठा रहा है. यहीं नहीं, इन्ही दिनों ही प्रदेश के जिला पंचायत उपचुनावों में भी लखनऊ, मिर्ज़ापुर, जालौन और बहेड़ी में समाजवादी पार्टी की कामयाबी ने भाजपा के लिए खतरे की घंटी बजा दी है.

चलिए जानने की कोशिश करते हैं कि घोसी में यह कारनामा कैसे हुआ और क्या इस परिणाम से इंडिया अलायन्स को कोई दिशा मिली है, क्या इस जीत से विपक्षी गठबंधन संतुष्ट हो जायेगा या फिर इस जीत से उत्साहित होकर और मज़बूती से एकजुट होकर भाजपा का मुकाबला करेगा। दरअसल देखा जाय तो घोसी हमेशा से समाजवादियों का गढ़ रहा है लेकिन भाजपा ने समाजवादियों के बड़े बड़े मज़बूत किलों को ढहाया हुआ है तो सपा उम्मीदवार की इस जीत को सिर्फ सपा का क्षेत्र कह देने से काम नहीं चलेगा। भाजपा की यहाँ पर हार के कई कारण हैं। पहला तो उम्मीदवार का चयन, दारा सिंह चौहान की दलबदलू इमेज। चुनाव से पहले सुभासपा चीफ ओम प्रकाश राजभर का भाजपा से हाथ मिलाना, क्योंकि भाजपा को बहुत उम्मीद थी उनसे जो पूरी नहीं हो सकी. राजभर समाज की ही कई सभाओं से ओ पी राजभर को भगाया गया. निषाद समाज के ठेकेदार संजय निषाद भी चुनाव के दौरान सिर्फ जीत के दावे और उलूल जुलूल दावे करते नज़र लेकिन वो अपने समाज के वोट भी पूरी तरह से भाजपा को नहीं दिला सके. उधर इंडिया अलायन्स एकजुट नज़र आया, भले ही वहां पर सपा के अलावा किसी और सहयोगी पार्टी का कोई ख़ास जनाधार नहीं था लेकिन एकजुटता का सन्देश जनता तक पहुँचने में कामयाब ज़रूर रहा और जीत की सबसे बड़ी वजह शिवपाल सिंह यादव का चुनाव प्रबंधन भी कहा जा सकता है, उनके प्रबंधन का जादू मैनपुरी में चला था और इस चुनाव में भी. उन्होंने दिखा दिया कि उनसे दूरी बनाकर अखिलेश ने पार्टी का कितना नुक्सान किया था.

घोसी में सपा उम्मीदवार की इस जीत में अखिलेश यादव के PDA यानी पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक फॉर्मूले का भी हाथ कहा जा सकता है, भाजपा भी इन दिनों अपनी चुनावी रणनीति का केंद्र पिछड़ों को ही बना रही है , तो कहीं न कहीं कहा जा सकता है कि कम से कम इस चुनाव में जनता ने इंडिया अलायन्स और PDA फॉर्मूले पर मोहर लगाई है. हम घोसी उपचुनाव के नतीजे को इंडिया अलायन्स के रिजॉल्यूशन की कामयाबी की पहली सीढ़ी मान सकते हैं, मंज़िल तक पहुँचने के लिए अभी पहुत सी सीढ़ियां चढ़नी पड़ेंगी। ये सीढ़ियां काफी खड़ी हैं इसलिए इनपर चढ़कर मंज़िल तक पहुंचना अगर असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है. इस चुनाव ने पूर्वांचल की राजनीति के स्वघोषित बादशाहों की बादशाहत को भी बड़ा झटका दिया है, जिससे कहीं न कहीं भाजपा भी खुश ही होगी क्योंकि ये स्वघोषित बादशाह समय समय पर गुर्राने और डराने की कोशिश ज़रूर करते हैं जिससे भाजपा को असहज स्थिति का सामना भी करना पड़ता है.

इस उपचुनाव में एक और ख़ास बात ये देखी गयी कि बसपा की अनुपस्थिति में पहली बार दलित वोटर काफी संख्या में सपा उम्मीदवार की तरफ गया. आम तौर यही होता आया है कि बसपा की गैरमौजूदगी में दलित वोट भाजपा की तरफ चला जाता है, इसे दलितों का सपा प्रेम तो नहीं कह सकते अलबत्ता INDIA का असर ज़रूर कह सकते हैं. इससे ये भी भ्रम टूटता नज़र आया कि दलित, यादवों के साथ कभी नहीं जा सकता और ये बात भाजपा के लिए एक बड़े खतरे की घण्टी है. आखिर में यही कहा जा सकता है कि इंडिया अलायन्स इसे अपने लिए एक अच्छी शुरुआत कह सकता है लेकिन इतना काफी नहीं, उसका मुकाबला उस पार्टी से जो सत्ता का इस्तेमाल करना जानती है, संगठन से भी मज़बूत है और पैसे से भी. तो इस उपचुनाव के नतीजे को इंडिया अलायन्स अँधेरे में उम्मीद की एक किरण की तरह देखे और उसकी रौशनी में संभलकर आगे बढ़ने की कोशिश करे तो ज़्यादा बेहतर होगा।

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