अमित बिश्नोई
पिछले एक हफ्ते के दौरान भारत की राजनीति में एक भूचाल सा आया हुआ है. कई घटनाएं एकसाथ और इतनी तेज़ी से हुई हैं जिनसे सवालों की एक दीवार सी खड़ी हो गयी है जिसे पार पाना सत्तारूढ़ भाजपा के लिए काफी मुश्किल हो रहा है. ऐसा कहने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है कि भाजपा के चाणक्यों से कहीं कोई बड़ी राजनीतिक भूल हो गयी है, भाजपा के चाणक्यों ने अडानी के मुद्दे से निपटने के लिए जो हथकंडा अपनाया वो अब उसी पर भारी पड़ता हुआ नज़र आ रहा है. आप सभी जानते हैं कि कांग्रेस नेता राहुल गाँधी को सूरत की एक निचली अदालत ने 2019 में मोदी उपनाम को लेकर दिए गए एक बयान के खिलाफ दायर मानहानि के मामले में अधिकतम यानि दो साल की सजा सुनाई जिसका मतलब ये होता है कि अमुक व्यक्ति विधायक-या सांसद नहीं रह सकता है और अगले आठ वर्षों तक चुनाव भी नहीं लड़ सकता है.
वैसे तो ये फैसला अदालत का है, सरकार का नहीं फिर भी जिस तेज़ी से घटनाक्रम हुआ है उससे कोई ये मानने को तैयार ही नहीं है कि ये विशुद्ध अदालती फैसला है. दरअसल इस फैसले और अडानी मामले में चल रहे संसद के घटनाक्रमों में इतने संयोग एकसाथ मिल गए कि इस फैसले पर सवाल उठना लाज़मी है. अगर आप मानहानि के इस मुक़दमे के इतिहास के बारे में गौर करेंगे तो बहुत सी बातें आपको स्पष्ट हो जाएँगी। एक ऐसा मुकदमा जिसपर याची ने खुद ही स्टे ले रखा था, दोबारा ओपन तब करवाता है जब सरकार अडानी मामले पर घिरी होती है और अदालत का फैसला तब आता है जब अडानी मुद्दा अपने चरम पर होता है, सरकार बुरी तरह घिरी होती है, मुद्दे को भटकाने के लिए राहुल गाँधी के लंदन वाले बयान का सहारा लेकर पलटवार करती है और जो सदन पहले विपक्ष की जेपीसी की मांग पर नहीं चल पा रही थी अब सत्ता पक्ष की राहुल माफ़ी मांगों की वजह से नहीं चल पा रही थी. सरकार अडानी मामले पर मौन थी, राहुल गाँधी के खिलाफ सत्ता पक्ष की तरफ से अवमानना की नोटिस दे जा चुकी थी, उन्हें सदन से निकाले जाने की मांग हो रही थी और अचानक राहुल गाँधी को सदन से निकाल दिया जाता है, उनकी सदस्यता छीन ली जाती है, कारण होता है सूरत कोर्ट का वो फैसला जिसमे उन्हें आपराधिक मानहानि का दोषी ठहराया जाता है.
राहुल गाँधी जो संसद में अडानी और पीएम मोदी के रिश्तों को लेकर सबसे मुखर थे, सरकार के लिए बहुत बड़ी समस्या बनते जा रहे थे और इसबार राहुल के आरोपों की आंच प्रधानमंत्री मोदी तक पहुँच रही थी. पहले राहुल गाँधी के भाषण के उन सभी हिस्सों को हटाया गया जिसमें पीएम मोदी और अडानी का ज़िक्र था. राहुल तब भी नहीं रुके, फिर सदन में उनसे मांफी मांगने का शोर उठा लेकिन कई चिठ्ठियां लिखने और स्पीकर से व्यक्तिगत तौर पर मिलने के बाद भी राहुल गाँधी को सदन में उन आरोपों का जवाब देने इजाज़त नहीं दी गयी जो सरकार के चार मंत्रियों द्वारा लगाए गए थे और अंत में उनकी सदस्यता को ही रद्द कर दिया गया. इस पूरी प्रक्रिया में जिस तेज़ी का प्रदर्शन किया गया वो भी सवालिया है, हालाँकि सबकुछ कानून के अंदर है लेकिन कानून को इतनी तेज़ी से हरकत में आते लोगों ने आमतौर पर देखा नहीं है.
राहुल गाँधी की सदस्यता जाने के पूरे मामले को देखने के बाद ये सवाल तो अपने आप ही उठता है कि क्या भाजपा या मोदी सरकार की यही रणनीति थी या फिर कहीं कुछ ऐसा हो गया जो उनकी रणनीति का हिस्सा नहीं था, या फिर जिसके बारे में उसने सोचा नहीं था. पहली बात तो यहाँ ये नज़र आती है कि भारत जोड़ो यात्रा की अपार सफलता से राहुल गाँधी की बढ़ती लोकप्रियता और स्वीकार्यता जिसके बारे में भाजपा को भी अनुमान नहीं था, के बाद अचानक हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट आने से अडानी का मुद्दा उछलना और राहुल गाँधी द्वारा मोदी-अडानी के रिश्तों को लेकर सवाल उठाने से केंद्र सरकार बहुत परेशान थी. मोदी सरकार किसी भी हालत में राहुल गाँधी को पप्पू की इमेज से निकलने नहीं देना चाहती थी. क्योंकि उसे मालूम है कि राहुल की इमेज के बदलने का मतलब पीएम मोदी की इमेज को नुक्सान।
यही वजह थी कि राहुल गाँधी के लंदन वाले बयान पर शुरू में एक आम प्रतिक्रिया के कई दिन बाद राहुल गाँधी माफ़ी मांगों का शोर उठा। शर्त लगा दी गयी कि संसद तब तक नहीं चलेगी जबतक राहुल माफ़ी नहीं मांगेंगे। राहुल ने माफ़ी नहीं मांगी उलटे अडानी-मोदी रिश्तों को लेकर उनके सवाल और तीखे हो गए। भाजपा की कोशिश यही थी कि राहुल गाँधी से अगर माफ़ी मंगवा ली जाती है तो इस मुद्दे पर राजनीतिक रूप से हो रहे नुक्सान की काफी हद तक भरपाई हो सकती है, इस माफ़ी की मांग को अगर मानहानि के फैसले से जोड़कर देखें तो कोर्ट ने भी राहुल गाँधी से माफ़ी मांगने को कहा था लेकिन राहुल गाँधी ने वहां भी माफ़ी नहीं मांगी। मुझे लगता है कि यहीं पर भाजपा की रणनीति नाकाम हुई है, उसे शायद ये यकीन था कि संसद सदस्यता बचाने और जेल जाने से बचने के लिए राहुल गाँधी माफ़ी मांग लेंगे और भाजपा का काम हो जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. भाजपा ने उम्मीद अब भी नहीं छोड़ी है, अगर आप अनुराग ठाकुर और कई केंद्रीय मंत्रियों के बयानों को देखें तो वो चाहते हैं कि राहुल गाँधी फैसले के खिलाफ अपील करें और उनकी सदस्यता बचे. वो बार बार सलाह देते नज़र आ रहे हैं कि फैसले के खिलाफ वो ऊपरी अदालत क्यों नहीं जा रहे हैं, ये सलाह भी यही दर्शाती है कि गलती तो हो गयी है और उम्मीद लगाईं जा रही है कि भाजपा की इस गलती को कांग्रेस सुधारे लेकिन फिलहाल कांग्रेस कोई गलती करते हुए नज़र नहीं आ रही, आगे की कोई गारंटी नहीं।