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क्या यह राम नाम की लूट का मामला तो नहीं?

आर्टिकल/इंटरव्यूक्या यह राम नाम की लूट का मामला तो नहीं?

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क्या यह राम नाम की लूट का मामला तो नहीं?

रंजीता सिन्हा
लखनऊ। अयोध्या के राम मंदिर को लेकर एक निर्विवाद युग की शुरुआत लगता है अभी नहीं हुई है। मंदिर निर्माण के नाम पर अधिगृहित की गई जमीन के नाम पर ताजा हेराफेरी का आरोप यही सच्चाई बयां कर रहा है। असल में भाजपा के लिए राम मंदिर वो मुद्दा है जिसको लेकर वह अस्तित्व में आयी। फिर बाद के सालों में समीक्षा की जाने लगी थी कि, अयोध्या अब ऐसा मुद्दा नहीं है जो किसी भी पार्टी को राजनीतिक लाभ दे सके, चाहे कोई राम मंदिर आंदोलन का विरोध करे या समर्थन। पहले तो राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद एक भावनात्मक मुद्दा बना रहा फिर एक चुनावी मुद्दा बनकर रह गया था। भाजपा के एक दिवंगत नेता ने कहा था की यह ऐसा चेक नहीं है जिसे दो बार भुनाया जा सके। …पर ताजा आरोप गंभीर है और सच साबित हुआ तो जिस चेक को बीजेपी भुना चुकी है, उसे विपक्ष बाऊंस करा कर कहीं सत्ता-बेदखली की नोटिस न थमा दे?

बहरहाल, धुआं तभी उठता है जब आग कहीं लगी हो। रामजन्म भूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट पर घोटाले का आरोप क्या कुछ ऐसा ही धुआं नहीं? हालांकि राम मंदिर के नाम पर अधिगृहित की गई जमीन के नाम पर जो हेराफेरी का आरोप है उसे किसी मीडिया प्लेटफार्म ने नहीं बल्कि सत्तासीन दल भाजपा की विरोधी पार्टियों न उठाया है, बावजूद इसके कागजी सबूतों की तस्दीक ही कथित घोटाले की गंभीरता तय करेगी। इतिहास में जाएं तो पाएंगे कि, यह मुद्दा राजनीति पर हावी रहा और हिंदुत्व की लहर का मुख्य कारण बनने के साथ ही, राजनीतिक पार्टी के तौर पर भाजपा के विकास की वजह भी रहा। आज जो पार्टी स्पष्ट बहुमत से देश का नेतृत्व कर रही है, उसकी यात्रा 1984 में दो सांसदों के साथ शुरू हुई थी। 1980 में ही जन संघ और जनता पार्टी के एक धड़े ने साथ आकर भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी थी, तभी से हिंदुत्व के नजरिये को लेकर पार्टी ने बीते 40 बरसों में तमाम पड़ाव पार किये।

अटल बिहारी वाजपेयी पहले अध्यक्ष थे और 1980 में शुरूआत से ही भाजपा ने राम जन्मभूमि को मुद्दा बनाया था। असल में, जिस जगह बाबरी मस्जिद स्थित थी, वहां अयोध्या राम जन्मस्थान की आजादी को लेकर पहले आरएसएस का आंदोलन जारी था, जिसे भाजपा ने बहुमत आधारित राजनीति में हिंदुत्व की धारणा से जोड़ा। 1984 चुनाव में भाजपा को बहुत कम सफलता मिलने के पीछे दो कारण प्रमुख थे। एक- भाजपा का सॉफ्ट हिंदुत्व और दूसरा- इंदिरा गांधी की हत्या से कांग्रेस को मिली सहानुभूति। लोकसभा में कांग्रेस को 414 सीटों का बड़ा बहुमत मिला था।

इधर राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो आरएसएस और भाजपा नए सिरे से रणनीति बनाने पर मजबूर थे। दोनों ने राम मंदिर आंदोलन में पूरी ताकत झोंकने की योजना बनाई। जब केंद्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकारें थीं, तब आंदोलन ने जोर पकड़ा तो, 1986 में विवादित स्थान पर ताला खोलने की इजाजत सरकार को देनी पड़ी। यह हिंदुत्व आंदोलन का बड़ा पड़ाव था। राम मंदिर आंदोलन के इतिहास में ये ताला खुलना बड़ा मोड़ साबित हुआ। यहां से बीजेपी ने इस मुद्दे के लिए पूरी ताकत झोंकने का निश्चय किया। 1989 के पालमपुर सम्मेलन में पार्टी ने तय किया कि उसका मुख्य राजनीतिक एजेंडा श्रीराम जन्मभूमि को मुक्त करवाकर विवादित स्थान पर भव्य मंदिर बनवाना होगा। हिंदुत्व के कट्टर चेहरे लालकृष्ण आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। अगले ही साल 1990 में आडवाणी ने अपनी सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा शुरू की।

यह समय राजनीतिक रूप से ध्यान देने वाला था क्योंकि केंद्र, उप्र और बिहार में कांग्रेस ढलान पर थी। वीपी सिंह लेफ्ट और राइट दोनों के समर्थन से पीएम थे। इधर, यूपी में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव का मुख्यमंत्री बनना राजनीति में नई सोशल इंजीनियरिंग का नया फार्मूला बन चुका था। मंडल कमीशन राजनीति और पिछड़ी जाति की राजनीति करने वाली पार्टियों को भी राम मंदिर मुद्दे का फायदा मिलता साफ दिख रहा था। 1990 में कारसेवकों पर फायरिंग के आदेश देने पर जहां मुलायम सिंह को मौलाना मुलायम का खिताब मिला वहीं समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ्तार किए जाने पर लालू को भी एक हिंदू विरोधी राजनीतिक प्रचार मिलना शुरू हुआ।

एक तरफ हिंदुत्व तो दूसरी तरफ जाति आधारित राजनीति और मंडल व दलित पॉलिटिक्स कसर पूरी कर रही थी। 1996 और 1999 के चुनावों में भाजपा को खासी कामयाबी मिलती दिखी और देश में 1999 में पहली बार पूरे कार्यकाल वाली भाजपा सरकार बनी। दूसरी तरफ राज्यों में मुलायम, मायावती और लालू जैसे नेताओं की राजनीति चमक रही थी। अब राम मंदिर मुद्दा बोतल से बाहर आया जिन्न बन चुका था और एक कानूनी लड़ाई में था।

1992 में राम जन्मभूमि आंदोलन के चरम पर पहुंचने के बाद भाजपा ने हर चुनावी घोषणा पत्र में इस मुद्दे को शामिल किया। बार-बार भारतीय जनता पार्टी ने अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर बनाने का वादा किया। 1998 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराई, भाजपा ने इसमें एक शब्द को जोड़ा कि मंदिर पहले से ही यहां मौजूद है। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद 1998 के चुनाव अभियान की मुख्य मुद्दा बन गया, सभी प्रमुख दलों ने किसी न किसी तरह से इसका जिक्र किया। इधर भाजपा ने भी समय के साथ अपने वायदे में आंशिक परिवर्तन करते हुए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सभी की सहमति से, कानूनी और संवैधानिक रास्ते से हल निकालने वादा किया।

बहरहाल, बाद के सालों में जैसे-जैसे भारत नई सदी में कदम रखता रहा अयोध्या चुनावी मुद्दा नहीं रह गया। भाजपा के घोषणापत्र में राम मंदिर का उल्लेख मिला है, लेकिन 2004, 2009, 2014 और 2019 के चुनाव अन्य मुद्दों पर लड़े गए हैं। 2004 में इंडिया शाइनिंग बनाम आम आदमी अभियान, 2009 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौता, 2014 में पॉलिसी पैरालिसिस और 2019 में सबका साथ, सबका विकास जैसे मुद्दे बीजेपी के एजेंडे में रहे। राम मंदिर का मुद्दा धीरे-धीरे पीछे चला गया है, इसलिए नहीं कि यह अब एक भावनात्मक मुद्दा नहीं है, बल्कि इसलिए कि बहुसंख्यक हिंदू अब आश्वस्त हो गया कि कोई भी अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण नहीं रोक सकता है। जो भी हो, आज की तारीख तक सभी यह समझ चुके थे अयोध्या से निकले जिस जिन्न ने भाजपा को इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचाया, वह अपना हुकुम पूरा कर वापस जा चुका है।

… पर यह नया जिन्न जो बीजेपी विरोधियों के हाथ लगा है, अब उसका क्या? इस जिन्न ने विपक्ष को रामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट पर करोड़ों के कथित जमीन घोटाले जैसा का गंभीर मुद्दा सौंप दिया है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री और समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता पवन पांडेय कई दस्तावेजों के साथ ये आरोप लगा रहे हैं कि जिस जमीन का बैनामा 2 करोड़ में हुआ था, उसी दिन उस जमीन का एग्रीमेंट ट्रस्ट के साथ साढ़े 18 करोड़ में किया गया। आरोप है कि बैनामे और एग्रीमेंट के बीच का समय महज कुुछ मिनटों का ही रहा? यह अपने आप में बड़ा सवाल है. अब पवन पांडेय ये सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर कैसे कुछ मिनटों के भीतर ही जमीन की कीमत में इतना फर्क आ गया? इस मामले की सीबीआई जांच की मांग की जा रही है। आम आदमी पार्टी वाले संजय सिंह बकायदा जमीन की खरीद-फरोख्त के कागजी सबूतों को दिखाने का दावा करते हुए कहते हैं कि, मैं समझता हूं आज उन करोड़ों भक्तों को ठेंस लगी होगी, जिन लोगों ने भगवान राम के मंदिर के निर्माण पर चंदा दिया। इधर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओपी राजभर ने भी ट्वीट कर योगी सरकार पर निशाना साधा है।

श्री राम जन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट ने लैंड डील को पारदर्शी बताया है पर इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि जो बैनामा बाद में होने वाला था उसके स्टाम्प पेपर पहले ख़रीदे गए और पहले होने वाली रजिस्ट्री के लिए बाद में. बेशक यह बात कानूनी रूप से कुछ गलत नहीं मगर मिलीभगत के आरोप को बल तो देती ही है. भले ही इन आरोपों को ट्रस्ट राजनीतिक साज़िश बता रहा हो क्योंकि किसी भी भ्रष्टाचार के आरोप से बचने का यह सबसे आसान और सबसे ज़्यादा प्रयोग होने वाला जवाब है मगर ट्रस्ट की ओर दिए जा रहे जवाब, लग रहे आरोपों को झुठला नहीं पा रहे हैं. ऐसे में अगर विपक्षी पार्टियां इसे राम नाम की लूट कह रही हैं तो ग़लत क्या है. सवाल तो बनता ही है कि क्या यह राम नाम की लूट का मामला तो नहीं ?

बहरहाल जो भी हो इन सब के बीच कहीं वो न हो जाय जिसकी राजनीतिक समझ रखने वालों को आशंका है। अयोध्या से घोटाले का लावा लेकर कहीं शांत पड़ा ज्वालामुखी तो नहीं फूटा, जिसपर बीजेपी विरोधी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने निकल पड़ें?

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