अमित बिश्नोई
कल समाजवादी पार्टी ने अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं और न्यूज़ चैनलों पर पार्टी का पक्ष रखने वाले पैनलिस्टों को धार्मिक मुद्दों पर बहस से बचने का निर्देश जारी किया है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे बचा जा सकता है. लोकसभा चुनाव भले ही 2024 में हैं लेकिन 2023 को चुनावी वर्ष कहा जा रहा है, एक तो बहुत सी विधानसभाओं के चुनाव इस साल होने हैं जिनका सम्बन्ध सीधे तौर से समाजवादी पार्टी या उत्तर प्रदेश से भले ही नहीं है लेकिन धर्म एक ऐसा मुद्दा है जो किसी राज्य तक सीमित नहीं रहता। यूपी में अगर कोई धार्मिक विवाद गर्म होता है तो उसका ज़िक्र देश के बाकी सभी चुनावी राज्यों में होता है और सबसे बड़ी बात लोकसभा चुनाव की है जिसकी बिसात बिछाने की तैयारियां राजनीतिक पार्टियां शुरू कर चुकी हैं.
बात करते हैं समाजवादी पार्टी के इस नए दिशानिर्देश की तो इसका सीधा सम्बन्ध मौजूदा रामचरित मानस विवाद से है जिसके केंद्र बिंदु पूर्व मंत्री और समाजवादी पार्टी के एमएलसी स्वामी प्रसाद मौर्या हैं. उनके बयानों के विरोध में सनातन का झंडा बुलंद करने वाले मोर्चा खोले हुए हैं, यहाँ तक कि बात अब मारपीट तक पहुँच गयी है वो भी नेशनल मीडिया के एक कार्यक्रम के दौरान। तो समझा जा सकता है कि मामला कितना आगे बढ़ चूका है. दरअसल यह मुद्दा ही कुछ ऐसा है कि इसमें अगड़े पिछड़ों को आमने सामने आने से रोका ही नहीं सकता। विशेषकर ब्राह्मण समाज और दलित, आदिवासी और अति पिछड़ा समुदाय।
समाजवादी पार्टी अभी तक इस मुद्दे को हवा देती आ रही है, लेकिन अब मुद्दे की आंच पार्टी के अंदर तक भी पहुँच चुकी है और पार्टी के अंदर ही स्वामी प्रसाद मौर्य का मुखर विरोध शुरू हो गया, यही वजह है कि उसने अपने दो तेज़ तर्रार महिला नेता रोली तिवारी मिश्रा और ऋचा सिंह के खिलाफ बड़ी कार्रवाई करते हुए पार्टी से निष्काषित कर दिया। दोनों ही नेताओं ने रामचरित मानस पर स्वामी प्रसाद मौर्या के दिए बयानों और उससे उपजे विवाद पर अपनी आवाज़ उठाई थी. हालाँकि इन नेताओं के खिलाफ इतनी बड़ी कार्रवाई करके सपा प्रमुख ने संकेत दे दिया है कि वो इस मुद्दे को पूरी तरह छोड़ना नहीं चाहते। रोली और ऋचा को पार्टी से निष्काषित कर सपा नेतृत्व ने बताया है कि वो स्वामी प्रसाद के साथ है और उसे इस मुद्दे से कोई परहेज़ नहीं है लेकिन उसे यह भी मालूम है कि अगड़ों-पिछड़ों की राजनीति को भाजपा धार्मिक रंग देने में जुटी हुई है.
अखिलेश चाहते हैं कि रामचरित मानस का मुद्दा सिर्फ स्वामी प्रसाद मौर्य तक ही रहे और उन्हें ही इससे अकेले निपटने दिया जाय. अखिलेश को यह भी मालूम है कि स्वामी प्रसाद मौर्य इस मुद्दे पर भाजपा का मुकाबला करने में सक्षम हैं. आप कल के रामगोपाल यादव के उस बयान को अगर देंखेंगे जिसमें उन्होंने कहा था कि पार्टी को टेढ़े लोगों की भी ज़रुरत होती है, काफी संकेत देती है कि पार्टी की क्या रणनीति है. वो इस मुद्दे को एक दायरे में सीमित रखना चाहती है ताकि कुछ विपरीत होने पर उसको आसानी से कंट्रोल किया जा सके.
सपा नेतृत्व को मालूम है कि धर्म की पिच पर वो भाजपा से बेहतर कभी नहीं खेल सकती और इसलिए वो यह नहीं चाहती कि चुनाव पूर्व भाजपा इस मुद्दे को कोई अलग रंग देकर अपने पक्ष में न कर ले. इसलिए एक तरफ वो रोली तिवारी और ऋचा मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई करती है और दूसरी तरफ मीडिया से रूबरू होने वाले पार्टी नुमाइंदों को निर्देश जारी करती है कि धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों पर बहस करने से बचें और सिर्फ राजनीतिक और बुनियादी सवालों पर ही चर्चा करें। सपा को अच्छी तरह मालूम है कि धर्म के मुद्दे को सांप्रदायिक मुद्दा बनाने की कला में भाजपा माहिर है. लेकिन सौ टके का सवाल यही है कि जब सामने वाला आपसे सिर्फ सिर्फ इसी मुद्दे पर बात करेगा तो आप कहाँ तक चर्चा से बचोगे। खैर देखना है कि सपा के प्रवक्ता, पैनलिस्ट किस तरह से इन निर्देशों का पालन करते हैं.