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सोशल इंजीनियरिंग के भाजपाई दांव-पेंच

आर्टिकल/इंटरव्यूसोशल इंजीनियरिंग के भाजपाई दांव-पेंच

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सोशल इंजीनियरिंग के भाजपाई दांव-पेंच

-फरीद वारसी

सोशल इंजीनियरिंग के भाजपाई दांव-पेंच

पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से मिले मार्गदर्शन नहीं, बल्कि सख्त दिशा-निदेर्शो के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की दरक गई जमीन को राजनीति रूप से उपजाऊ बनाने के लिए उसमें बीज, खाद-पानी डालने का काम शुरू किया, ताकि चुनावी फसल काटी जा सके। इसी क्रम में मुख्यमंत्री ने गत दिनों एक के बाद एक कई आयोगों का गठन जैसे पहले अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन करने के ठीक चौबीस घंटे के बाद राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया और इन आयोगों में संबंधित सजातीय वर्ग के नाराज व असंतुष्ठ पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं को समायोजित करने का काम किया। ऐसी चर्चा है कि इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए मुख्यमंत्री द्वारा तमाम निगमों, परिषदों और बोर्डो का गठन कर भगवा खेमे के लोगों को रेवड़ियां बांटी जाएंगी।

मालूम हो कि उत्तर-प्रदेश तमाम बड़ी जातियों, छोटी जातियों, पिछड़ी जातियों और अति पिछड़ी जातियों का केंद्र है। राजनीतिक दृष्टि से भी इनका काफी महत्व है। और यही कारण है कि कहा जा रहा है कि इन जातियों को साधने के लिए अमित शाह की यह सोशल इंजीनियरिंग है। फिलहाल, भाजपा अपने हिन्दुत्व, कथित राष्ट्रवाद और पाकिस्तान जैसे अपने चिरपरिचित मुद्दों को थोड़ा पीछे रखकर सोशल इंजीनियरिंग पर काम कर रही है। अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग कितनी कारगर रहेगी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सूत्रों का कहना है कि संघ और भाजपा ने एक आंतरिक सर्वे कराया है जिसके तहत भाजपा को आगामी विधानसभा चुनाव में महज सौ सीटें मिलने की बात कही गई है। यही कारण है कि अपनी संभावित हार को देखते हुए भाजपा में चिंताओं के बादल काफी गहरे हो गए है। और यह पहला मौका है कि एक महीने में दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय संगठन महासचिव बीएल संतोष अपने लखनऊ प्रवास पर आ रहे हैं। फिर उसके बाद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और अमितशाह उत्तर प्रदेश का रूखकर चुनावी तैयारियों की थाह जानने की कोशिश करेंगें। विदित हो कि योगी-मोदी सरकार से आम लोगों की नाराजगी का दायरा काफी विस्तृत है। अकेले कोविड-19 पर योगी-मोदी सरकार की विफलता नहीं, बल्कि दूसरे तमाम ऐसे जनहित से जुड़े मुद्दे हैं जहां भाजपा सरकारें बुरी तरह से नाकाम हुई हैं और आम लोगों का जनजीवन प्रभावित हुआ है। अब तो रिजर्व बैंक के गवर्नर ने कह दिया कि कोविड़-19 की दूसरी लहर से आर्थिक नुकसान हुआ है और लोगों के रोजगार के अवसर घटे हैं। तो सवाल यह पैदा होता है कि इसका जिम्मेदार कौन? क्या महज जातीय आयोगों के गठन कर देने भर से संबंधित जाति के लोगों के कष्ठों का निवारण हो जाएगा। यह सच है कि इस तरह के आयोगों का गठन कर उसे पद और लालबत्ती देकर अपने नाराज कार्यकर्ताओं व नेताओं के आंसू कुछ समय के लिए भले ही पोछें जा सकते हैं लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आयोगों के गठन के माध्यम से संबंधित जाति व वर्गों के लोगों की व्यापक दिख रही नाराजगी को कम कर उन्हें अपने पाले में गोलबंद करना आसानं है, वह भी तब जब चुनावों में महज छह माह का ही समय रह गया हो। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि भाजपा जितिन प्रसाद को कांगे्रस से अपने खेमे में इसलिए लाई ताकि नाराज ब्राहम्णों को मनाया जा सके लेकिन यह दांव उल्टा पड़ता दिख रहा है क्योंकि जितिन प्रकरण से यह संदेश सुदुर तक गया है कि भाजपा ने यह मान लिया कि ब्राहम्ण उससे नाराज है और ठीक इसी तरह जिस तरह मुख्यमंत्री द्वारा आनन’-फानन मंे अयोगों का गठन किया जा रहा है उससे भी यह बात सामने निकल कर आ रही है कि विभिन्न जाति और धर्म के लोग भाजपा से नाराज हैं।

वहीं इससे पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अब तक के हर भाषण में यही बात बार-बार सुनने को मिलती है कि मेरे 138 करोड़ भारतीय, तो दूसरी ओर योगी सरकार के दौरान राजधानी लखनऊ की सड़कों सहित तमाम दूसरी जगहों पर बहुत से सरकारी विज्ञापन इस स्लोगन के साथ लगे हुए है कि ‘‘प्रधानमंत्री मोदी का विजन हो रहा है साकार, काम दमदार योगी सरकार।’’ उपरोक्त दोनों बातों का अर्थ यह हुआा कि भाजपा समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के आंसू पोछना चाहती है। लेकिन वहीं दूसरी ओर भाजपा की कथनी और करनी देखिए उत्तर प्रदेश में कमजोरों और वंचितों की सुध आयोगों का गठन कर अब लेने का प्रयास किया जा रहा है जब चुनावों की उल्टी गिनती शुरू होने वाली है। योगी सरकार की इस शिथिलिता को क्या कहा जाए कि अपने बहुचर्चित ठाकुरवाद के कारण या अपनी उस कार्यशैली के कारण जो सवालों के घेरे में हैं, के चलते अब तक मुख्यमंत्री ने कमजोर वर्गों के प्रति पहल नहीं की। यह लिखने से गुरेज नहीं कि आयोगों का गठन महज चुनावी झुनझुना है। अपने लोगों को समायोजित करने का एक माध्यम है। फिर सोशल हंजीनियरिंग जैसे शब्द तो चुनावी राजनीति का हिस्सा हैं। सही शब्द है सामाजिक न्याय। जिसे सत्ता में आने के बाद वंचितों और कमजोर वर्गों की आर्थिक, समाजिक और राजनीतिक स्तर को सुधारने के लिए विभिन्न सरकारों द्वारा काम किया जाता है। क्या योगी सरकार इस कसौटी पर खरी उतरी है? यहां यह बताते चले कि 2007 में यूपी मंे बसपा की सरकार बनने के बाद मायावती ने थोक के भाव से पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को लालबत्ती से नवाजा था। बसपा के एक बड़े नेता के करीब तीन दर्जन नातेदार और रिश्तेदारों को लालबत्ती दी गई थी लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा का क्या हाल हुआ था यह किसी से छिपा नहीं है। सिर्फ सत्ता ही नहीं, बल्कि बसपा प्रमुख विपक्षी दल के लायक ही नहीं रही थी और उसके गिरावट का सिलसिला आज तक कायम है और ऐसी ही संभावना 2022 में भाजपा के संबंध में भी व्यक्त की जा रही है।

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इधर, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन कर भाजपा ने एक तरह से मायावती के वोटबैंक में सेंध लगाने का काम किया है। जिस पर चितिंत होने के बजाए मायावती बसपा से पलायन कर सपा में जा रहे नेताओं के कारण सपा पर हमलावर हुईं। मायावती का विचलित होना स्वाभाविक है क्योंकि सपा के पक्ष में जिस तरह से चुनावी माहौल बन रहा है वह बहन जी को रास नही आ रहा है। विदित हो कि गोदी मीडिया की पत्रकारिता और मायावती की राजनीति में कोई ज्यादा अंतर नहीं है। केंद्र में जब से मोदी की सरकार बनी है गोदी मीडिया भाजपा के बजाए विपक्ष से सवाल पूछता है और मायावती भी भाजपा सरकारों पर हमलवर होने के बजाए सपा को कटघरे मेें खड़ा करने का काम करती है। भाजपा सरकारों की वे आलोचना करना शायद भूल ही गई हैं। अगर कभी बयान जारी भी किया तो योगी और मोदी सरकार को सलाह देने तक अपनी भूमिका को सीमित रखा। बेहतर यही होगा कि मायावती अपनी पार्टी और अपने बचे कुचे वोटबैंक की चिंता करे और साथ ही उन आरोपों की भी जिनके तहत कहा जा रहा है कि कहीं न कहीं अंदर खाने में भाजपा और बसपा के बीच खिचड़ी पक रही है। और मायावती आगामी चुनावों में भाजपा को शायद वाॅकओवर देने की योजना पर काम कर रही हैं।

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