- धरती के भगवान पर बरसाई लाठियां, आंसू गैस के गोले छोड़े
- कृषि अध्यादेश लागू कराने में झलकी केंद्र सरकार ही हठधर्मिता
सुनील शर्मा
न्यूज डेस्क। “जय जवान, जय किसान” का नारा देने वाले देश में आज जवान और किसान आमने-सामने आने को मजबूर हो गये हैं। न चाहते हुए भी उन्हें एक-दूसरे से टकराना पड़ रहा है। इसकी वजह कोई आपसी रंजिश नहीं बल्कि सरकार के फैसले हैं जो कथित रूप से किसानों के हित में लिये गये हैं, मगर किसानोें की निगाह में वह परेशानी का सबब हैं। केंद्र के सत्ता सिंहासन पर बैठी वह सरकार है जो किसानों के हित में निर्णय लेने की बात तो कहती है मगर किसानों की ही बात नहीं सुनती। वह सरकार है जो सिर्फ कहती है और करती है मगर सुनती किसी की नहीं है।
केंद्र सरकार द्वारा पारित कृषि कानूनों के खिलाफ किसान काफी समय से आवाज उठा रहे हैं। धरना-प्रदर्शन किये, ज्ञापन दिये, सांसद-विधायकों से वार्ता की और प्रदेश और केंद्र सरकार तक अपनी बात पहुंचाने का हरसंभव प्रयास किसानों ने किया। मगर उनकी बात सरकार के कानों तक नहीं पहुंची तो किसानों ने सरकार के पास जाकर अपनी समस्याएं बताने की कोशिश की। मगर निर्णय करने और उनको तुरंत लागू करने और उसके बाद किसी की नहीं सुनने की नीति अपना चुकी केंद्र सरकार ने उन्हें रास्तों पर ही रोकने का प्रयास किया। किसानों को रोकने के लिए सड़कों पर पत्थर, कंटीले तार, बैरिकेड लगा दिए। वहीं कई जगह सड़कों को खोद दिया गया। मगर किसान दिल्ली बार्डर तक पहुंच गये तो वहां पुलिस, आरएएफ आदि सुरक्षाबल तक उनका रास्ता रोक कर खड़े हो गये। दिल्ली-हरियाणा के सिंधु बार्डर पर तो अन्नदाताओं पर लाठीचार्ज करने के साथ उन्हें तितर-बितर करने के लिये आंसू गैस के गोले तक छोड़े गये। किसानों के देश में इससे दुखद और कुछ नहीं हो सकता कि उन्हें जवानों से टकराना पड़े। देश के लिये अन्न उगाने वाले को अपनी आवाज उठाने की सजा लाठियां खाकर मिली।
किसानों के आंदोलन, दिल्ली में जबरन घुसने और बेरिकेडिंग तोड़ने के पक्ष और विपक्ष में अनेक सवाल खड़े किये जा सकते हैं। मगर इन्हीं के बीच बड़ा सवाल यह है कि आखिर ऐसेी नौबत आयी क्यों कि किसानों को अपना घर-बार, खेती-बाड़ी छोड़ कर, ठंड के मौसम में सड़कों पर रात गुजारने को मजबूर होना पड़े। केंद्र सरकार द्वारा पारित कृषि कानून से किसानों का कितना हित होगा यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा मगर क्या यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी कि वह किसानोें के हित के नाम पर बनाये गये कानून को पारित करने से पहले किसानों के साथ भी विचार-विमर्श करती। क्या कानून को लागू करने से पहले किसानों को इसके लाभकारी पहलुओं से वाकिफ नहीं कराया जाना जरूरी नहीं था।
क्या सरकार में शामिल सांसदो-विधायकों को अपने क्षेत्र के किसानों के अलावा भी अन्य स्थानों पर जाकर किसानों को जागरूक नहीं किया जाना चाहिये था। पूर्व में अपने खिलाफ हुए आंदोलनों को केंद्र सरकार ने राजनीति से प्रेरित बता कर पल्ला झाड़ा है। मगर इतनी बड़ी संख्या में किसानों को जुटाने का काम क्या कोई राजनीतिक दल कर सकता है। किसानों के आंदोलन का परिणाम क्या निकलता है यह तो भविष्य ही बतायेगा। लेकिन सड़कों पर उतरकर सरकार को हिला कर रख देने वाले किसान आसानी से चुप नहीं बैठेंगे यह साफ नजर आ रहा है।
कृषि अध्यादेश को लाने से लेकर लागू कराने में केंद्र सरकार ही हठधर्मिता झलक रही है। धरती के भगवान पर लाठीचार्ज, सर्द रात में ठंडे पानी की बौछार करना, आंसू गैस के गोले छोडे़ जाने की नौबत आने देना सरकार की नाकामी को भी प्रदर्शित कर रहा है। दिल्लीी आ रहे किसानों का रास्ता रोकने के लिये सड़कों पर पत्थर, कंटीले तार, बैरिकेड लगाना, सड़कों को खोद देना क्या देश में लोकतंत्र की हत्या करना नहीं है। होना यह चाहिये था कि कानून बनाने से पहले किसानों का पक्ष भी जाना और समझा जाता। किसानों को कानून लागू होने पर मिलने वाले लाभों के बारे में बताया जाता। किसानों के आंदोलन की चेतावनी को नजरअंदाज न किया जाता और अपनी हठधर्मिता छोड़ कर सरकार किसानों के पास खुद जाती। किसानो के दिल्ली बार्डर तक पहुंचने से पहले उनकी बातों को सुनने का आश्वासन दिया जाता ताकि दिल्ली बार्डर पर जंग के हालात न बनते।
मगर यह हो न सका, या कहें किया न जा सका, जिसका नतीजा आज हम सभी देख रहे हैं। लेकिन सरकार किसान को नहीं बनाती बल्कि किसान सरकार को बनाते हैं। ऐसे में सरकार को चाहिये कि किसानों से वार्ता कर समस्या का शांतिपूर्ण समाधान निकालने का प्रयास करे। क्योंकि किसान और जवान का टकराव देखना तो दूर सोचना भी दुखदायी है। मगर सरकार अपनी बालहठ में रही तो यह दृश्य हमें बार-बार देखने को मजबूर होना पड़ेगा।